देश के कई राज्यों से आता है सामान, तब इस पंडाल में होता है मां का श्रृंगार

अनुज गौतम/सागर. देशभर में नवरात्रि की धूम है. सागर भी इससे अछूता नहीं है. शहर भक्ति के रंग में डूबा हुआ है. यहां पर श्रद्धालुओं में आस्था का अलग ही सैलाब दिखाई देता है. शहर में प्रसिद्ध कंधे वाली काली मां 119 साल बाद भी भव्यता और दिव्यता के साथ विराजमान की गई हैं. माता के दर्शन करने के लिए रोजाना हजारों की संख्या में श्रद्धालु पहुंच रहे हैं.

प्रतिमा की साज सज्जा के लिए कलाकारों के द्वारा हर बार बाहर से सामग्री मंगवाई जाती है. इस बार दुर्गा माता की पोशाक के लिए मैसूर से साड़ियां आई हैं. माता के मुकुट की सामग्री मथुरा से आई है. माता सरस्वती के लिए पहली बार प्रिंटेड मखमल को दिल्ली से मंगवा कर ब्लाउज तैयार किया गया है. भगवान गणेश के लिए महाराष्ट्रीयन पगड़ी मुंबई से आई है. वहीं जेवर के लिए दिल्ली से सोने की ज्वेलरी आई है.

कलकत्ता से आए कलाकार
यहां पर 75 फीट ऊंचा माता का भवन कोलकाता से आए 20 कलाकारों द्वारा तैयार किया गया है. वहीं करीब डेढ़ किलोमीटर के एरिया को आकर्षक रंग बिरंगी लाइटों से साज सज्जा की गई है. सागर की सबसे प्राचीन काली के दर्शन करने के लिए दूर-दूर से लोग पहुंचते हैं.

1905 में पहली बार स्थापना
बता दें की शहर के पुर्व्याऊ क्षेत्र में कोलकाता की तर्ज पर महिषासुर मर्दिनी के स्वरूप में माता विराजमान होती आ रही हैं. खास बात यह कि 1905 में पहली बार जिस स्वरूप में माता को विराजित किया गया था, आज भी उनका वही स्वरूप तैयार किया जाता है. लकड़ी के सांचे पर और पालकी में यह प्रतिमा होती है. दुर्गा माता के साथ माता सरस्वती, माता लक्ष्मी, भगवान गणेश भी विराजमान होते हैं.

ऐसे हुई शुरुआत
कमेटी के अध्यक्ष और मूर्तिकार राजेंद्र राजपूत बताते हैं कि मोहल्ले में रहने वाले हीरा सिंह राजपूत घूमने के लिए कोलकाता गए थे, वहां पर इस तरह की लोगों को संगठित करने के कार्यक्रम करता देखा. तब एक छोटी सी जगह पर पालकी में उन्होंने माता की स्थापना की थी. लोग मिलते नहीं थे, इसलिए उन्हें कंधे पर विसर्जन करने के लिए ले जाते थे. इसके बाद लोग एकत्रित होने लगे और फिर हर साल लोगों की संख्या बढ़ने लगी. अब हजारों लोग यहां पर आते हैं.

18 भुजाओं वाली माता की 5 आरतियां
बता दें कि इस प्रतिमा में जरा सा भी पर्यावरण को प्रदूषित करने वाली किसी सामग्री का इस्तेमाल नहीं किया जाता है. प्रतिमा में खेत की मिट्टी और रुई की मिलावट कर उसको गलाया जाता है. फिर कूटा जाता है और फिर प्रतिमा का स्वरूप दिया जाता है. इस तरह से करीब 15 दिनों में यह प्रतिमा तैयार हो जाती है. 18 भुजाओं वाली महिषासुर मर्दिनी के स्वरूप में माता बेहद ही सुंदर लगती हैं. यहां पर सुबह 3:30 से लेकर रात तक पांच प्रकार की आर्तियां की जाती हैं. वैदिक रीति से मंत्र उच्चारण किए जाते हैं.

कांधे पर सवार होकर शहर में निकलती हैं
नवरात्रि के अंतिम दिन माता का विसर्जन लाखा बंजारा झील में किया जाता है. लेकिन इसकी पहली वह अपने भक्तों के कंधों पर सवार होकर पूरे शहर का भ्रमण करती हैं. उनके साथ में हजारों की संख्या में हर्ष, उल्लास, उत्साह, उमंग के साथ श्रद्धालु शामिल होते हैं.

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