शशिकांत ओझा/पलामू. जहां आस्था की बात होती है वहां पौराणिक मान्यताएं और कथाएं उभर कर सामने आ ही जाते हैं. पूरा सनातम धर्म माता दुर्गा की भक्ति में डूबा है. अलग-अलग क्षेत्रों में भिन्न-भिन्न परंपरा और मान्यताएं हैं. वहीं पलामू जिला के मेदिनीनगर स्थित दुर्गा बाड़ी में बंगाली पद्धति से माता दुर्गा की पूजा की जाती है. जोकि यहां की पूजा को जिले भर में होने वाली दुर्गा पूजा से अलग करती है. यहां की प्रतिमा से लेकर पूजा पद्धति अपने आप में खास और अनोखा है. वहीं हर साल दुर्गा पूजा में बलि देने की भी परंपरा है लेकिन जीव हत्या पर रोक है.
दुर्गा बाड़ी पूजा समिति के अध्यक्ष कौशिक मल्लिक ने लोकल 18 को बताया कि बलि दान की परंपरा का पौराणिक महत्व है. जब भी हम शक्ति की आराधना करते है तो माता को प्रसन्न करने के लिए बलि दी ही जाती है. मां दुर्गा को सबसे पहले चन्ड मुंड की बलि दी गई थी. धीरे धीरे यह परंपरा जानवरों पर भारी पड़ने लगी. आज भी कई स्थानों पर जानवरों की बलि दी जाती है. लेकिन दुर्गा बाड़ी का ये उद्देश्य नहीं रहा कि किसी निर्बल की बलि देकर मां को खुश किया जाए. इसीलिए यहां जानवरों की बलि नहीं चढ़ती. बल्कि मां को प्रसन्न करने के लिए प्रतीकात्मकता तौर पर भतुआ, केतारी और केला की बलि दी जाती है. यहां 109 सालों से माता की पूजा हो रही है और तभी से यह परंपरा चली आ रही है. दुर्गा पूजा में सप्तमी, अष्टमी और नवमी को यहां मां को प्रसन्न करने के लिए फल की बलि दी जाती है.
दुर्गा पूजा में तीन दिन होता है बली दान
उन्होंने आगे कहा कि सप्तमी और अष्टमी को दोपहर में पूजा के दौरान फल की बली दी जाती है.इस दौरान ढाक बजाया जाता है.यह नजारा काफी भव्य होता है.मां को प्रसन्न करने के लिए मिट्टी के चबूतरा बनाकर साफ और स्वच्छ भतुआ, ईख और केला की बेलपत्र और पूजन सामग्री से पूजा की जाती है.जिसके बाद सिंदूर का लेप चढ़ाकर मां के चरणों में छुआकर मिट्टी के चबूतरा पर लाया जाता है.और बुजुर्गो द्वारा तलवार से इसे काटा जाता है.इस प्रकार बली दान की परंपरा आज भी चली आ रही है.बलिदेने से पहले फल को अच्छी तरह जांच किया जाता है.किसी प्रकार से कटा या कोई दाग तो नहीं है.कारण की मां को अर्पित करना है.इसीलिए फल साफ और स्वच्छ रहना चाहिए.नवमी के दिन संध्या बेला में बलिदान की पूजा की जाती है.
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FIRST PUBLISHED : October 21, 2023, 19:18 IST