दिवाली पर जुआ खेलने की शुरुआत कब से हुई? इस तरह खेलना होता है अशुभ!

विकाश पाण्डेय/सतना: दीपावाली का त्यौहार इस बार 12 नवंबर को है. हिन्दू धर्म में आस्था संस्कृति का यह महापर्व बड़े ही उत्साह और उमंग के साथ मनाया जाता है. इसी दिन भगवान राम ने लंका विजय कर के अयोध्या लौटे थे. धर्म और अधर्म की लड़ाई में भगवान राम ने अधर्म का नाश कर धर्म का परचम लहराया था. इस दिन माता लक्ष्मी का पूजन भी विधि विधान से किया जाता है. यह दिन सौभाग्य, वैभव, धन, धान्य प्राप्त करने का सब से उत्तम दिन माना जाता है. इसलिए इस दिन पूरे घर की अच्छे से साफ़ सफाई की जाती है, घर का रंग रोगन कर फूल मालाओं, सजावटी सामान से सजाया जाता है. ताकि माता लक्ष्मी का आगमन घर में हो.

लेकिन इस दिन को लेकर एक और मान्यता जुड़ी है वो है दीवाली की रात्रि ‘ जुआ ‘ खेलने की परंपरा जो सदियों से चली आ रही है. इस परंपरा में दीवाली की संध्या लक्ष्मी पूजन के पश्चात या दूसरे दिन परीवा को जुआं खेला जाता है. जिसे शुभ माना जाता है लेकिन जब जुआ पैसा लगा कर खेलते हैं वह अशुभ होता है. इसका उदाहरण पाण्डव हैं जिन्होंने अपना सब कुछ जुए के दांव में लगा दिया था और कंगाल हो जाए थे इसलिए पैसे लगाकर  जुआं खेलना अशुभ माना गया हैं.

कैसे शुरू हुई जुआं खेलने की परंपरा.
पौराणिक कहानियों अनुसार कहा जाता है कि दीवाली की रात भगवान शिव और माता पार्वती दोनों चौसर खेल रहे थे. जिसमें भगवान शिव की हार हुई और माता पार्वती चौसर जीत गई. तभी से दीवाली को जुआ खेलने की परंपरा बनी हुई है. लेकिन जुआं खेलने की परंपरा के पीछे की भगवान शिव और माता पार्वती की कहानी के कहीं ठोस प्रमाण नहीं मिलते इसलिए यह कहना उचित नहीं होगा की यह शास्त्र संगत है.

पुराणों का मिलता है हवाला.
इस प्रथा को लेकर गूगल में कई तरह के आर्टिकल और प्रमाण होने की पुष्टि की गई है लेकिन पण्डित देवेंद्र दास जी महराज ने कहा कि इस तथ्य की सत्यता को लेकर कहीं ठोस प्रमाण नहीं है न ही इसके पीछे की कोई वजह है. जुआं सामाजिक दृष्टि से समाज के हित में नहीं और पैसे लगाना तो बिलकुल गलत है इसका सब से बड़ा उदाहरण महाभारत के पांडव हैं.

(नोट -हमारे द्वारा दी गई जानकारी पौराणिक मान्यताओं और कहानियों पर निर्भर है ऐसे में किसी भी प्रकार की तथ्यात्मक चूक या सत्यता से संबंधित जिम्मेदारी लोकल 18 की नही होगी.)

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