ताकि बची रहे संस्कृति…लोक गीत-लोक नृत्यों को युवाओं से जोड़ने की कोशिश है ‘उत्तराखंड लोक विरासत’

हिना आज़मी/ देहरादून. हमारे देश में अलग-अलग राज्यों की अलग-अलग संस्कृति है. उत्तराखंड राज्य की संस्कृति के प्रतीक यहां के लोकगीत, खानपान और लोक नृत्य हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करते हैं. अलग-अलग परिधानों के साथ-साथ अलग- अलग भाषाओं के गीतों पर विभिन्न नृत्य हमारी संस्कृति के धरोहर हैं. लेकिन धीरे-धीरे पहाड़ों से लोगों का पलायन होता जा रहा है. वहीं खाली होते पहाड़ी गांवों के लोक गीत खामोश होते जा रहे हैं. लोक नृत्य भी हमारे बीच से ओझल हो रहे हैं. यही वजह है कि नई पीढ़ी अपने पुराने लोकगीतों और लोकनृत्यों से दूर होती जा रही है.

नई पीढ़ी में अपनी संस्कृति के प्रति जागरूकता लाने के लिए उत्तराखंड विरासत के आयोजक और समाजसेवी डॉ केपी जोशी काम कर रहे हैं. वह उत्तराखंड के अलग-अलग क्षेत्रों से उत्तराखंड के लोक गीतों को गाने वाले, उत्तराखंड के पारंपरिक लोक नृत्य पर परफॉर्म करने वाले और वाद्ययंत्र बजाने वालों के साथ मिलकर शहरों में कार्यक्रम आयोजित करते हैं, जिससे नए जमाने की पीढ़ी भी पहाड़ की संस्कृति की जड़ों से जुड़ी रहे.

40 वाद्ययंत्र हुए प्रचलन से गायब
डॉ. केपी जोशी ने कहा कि उत्तराखंड की अनूठी संस्कृति है, जिसे दूर-दूर तक हमें पहुंचाना चाहिए, लेकिन काम इसके विपरीत ही हो रहा है. जितने लोग हमारे लोक नृत्य और लोक गीतों को जानते थे, उनके बच्चे इनके बारे में नहीं जानते हैं. उत्तराखंड के लोग ही अपनी संस्कृति से अनजान हैं. पहले उत्तराखंड के 55 वाद्ययंत्र थे, जिनमें से आज महज 15 वाद्ययंत्र ही बचे हैं. उन्होंने बताया कि हमारे लोकनृत्यों की विधाएं और लोकगीतों की कई अहम बातें बाहर ही नहीं आ पाई हैं, इसलिए वह उन चीजों को राजधानी देहरादून तक लाना चाहते हैं. यही वजह है कि वह हर साल ‘उत्तराखंड लोक विरासत’ का आयोजन करते हैं, जिनमें लोकगीत कलाकारों और लोकनृत्य कलाकारों को बुलाकर नई पीढ़ी से रूबरू करवाते हैं ताकि युवा वर्ग भी हमारी संस्कृति की जड़ों से जुड़ा रहे.

मिटानी होंगी युवाओं से विरासत की दूरियां
छोलिया नृत्य के कलाकार महेश जगरिया ने कहा कि उनके दादा छोलिया नृत्य परफॉर्म किया करते थे, फिर उनके पिता करने लगे और अब वह इस काम में लगे हैं ताकि हमारे पहाड़ की संस्कृति बची रहे. आज वह जब देखते हैं कि बड़े बुजुर्ग तो नृत्य का आनंद लेते हैं लेकिन वहीं नई पीढ़ी अपने मोबाइल में लगी रहती है और अपनी संस्कृति से दूर भागती है, तो यह बात उन्हें बहुत कष्ट देती है. इसलिए वह चाहते हैं कि मिलकर ऐसे प्रयास किए जाएं, जिससे उत्तराखंड की संस्कृति मुरझाए नहीं बल्कि हमेशा खिलती है. इसके लिए हमें युवाओं से विरासत की ये दूरियां मिटानी होंगी.

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