जानें क्या है जैवलिन थ्रो का इतिहास? कैसे पहुंचा युद्ध के हथियार से ओलंपिक खेल तक

भारत में कई दशकों से क्रिकेट ने खेल प्रेमियों के दिलों में एक अहम जगह बनाई है। वैसे तो देश में कई खेल हैं, लेकिन कुछ समय से क्रिकेट एकलौता खेल है जिसका क्रेज लोगों के सिर चढ़कर बोलता है। लेकिन कुछ सालों से क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों ने युवाओं के दिल में अपनी छाप छोड़ी है। या यूं कहें कि युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया है। इन्हीं में से एक है जैवलिन थ्रो, जिसे हम भाला फेंक के नाम से भी जानते हैं। जैवलिन थ्रो एक ग्लोबल स्पोर्ट बन गया है। इससे पहले इसका इस्तेमाल शिकारी और सैनिकों द्वारा किया गया था।

शिकारी जानवरों को मारने के लिए एक छोर पर भाले के साथ एक लंबी छड़ी लगाते थे और इसे फेंककर शिकार करते थे। जबकि सैनिकों ने इसे युद्ध में एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया। आधुनिक समय में भाला फेंक खेल में शामिल हो गया है। जो खिलाड़ियों को सम्मान दिलाता है। 

जैविलिन थ्रो का इतिहास 

पहली बार जैवलिन थ्रो 708 ईसा पूर्व ग्रीस मे हुए प्राचीन ओलंपिक गेम्स में एक खेल के रूप में शामिल हुआ। ये दौड़, डिस्कस थ्रो, लंबी कूद और कुश्ती के साथ पेंटाथलॉन इवेंट का हिस्सा था। उस समय जैवलिन जैतून की लकड़ी से बनता था। 

पुराने समय में ओलंपिक खेलों का आयोजन स्थल ओलंपिया की स्थिति सदियों से कई लड़ाइयों और प्राकृतिक आपदाओं के बाद बिगड़ गई। रोमन सम्राट थियोडोसियस प्रथम ने मूर्तिपूजक समारोहों और कामों को अवैध घोषित करते हुए खेलों को आधिकारिक तौर पर 394 ईसवीं के आसपास खत्म कर दिया। इसी के साथ भाला फेंक खेल के तौर पर खत्म हो गया। 

लेकिन 1700 के दशक के आखिर में स्कैंडिनेवियाईयों ने इस खेल को पुनर्जीवित किया। फिनलैंड और स्वीडन ने भाला फेंक के दो अलग-अलग इवेंट में प्रतिस्पर्धा की। जिसमें एक में भाला लक्ष्य पर फेंकना होता था और दूसरे में सबसे दूर फेंकना होता था। हालांकि, बाद के दशकों में दूर फेंकने वाला भाला फेंक ज्यादा लोकप्रिय हो गया। 

 वहीं जैवलिन थ्रो खेल के सबसे पहले स्वीडन के एथलीट एरिक लेमिंग थे। वह बहुमुखी प्रतिभा के धनी ट्रैक और फील्ड एथलीट में विशेषज्ञ थे, जिसमें भाला फेंक के अलावा वह जंपिंग इवेंट में भी भाग लेते थे। लेमिंग ने एक दशक से ज्यादा समय तक इस खेल पर अपना वर्चस्व बनाए रखा। 

जैवलिन थ्रो ओलंपिक में शामिल 

इसके बाद अन्य इवेंट थ्रो इवेंट डिस्कस और शॉट पुट को 1896 के पहले आधुनिक ओलंपिक खेलों में शामिल किया गया था। 1908 में लंदन में आयोजित हुए तीसरे सीजन से भाला फेंक को पहली बार शामिल किया गया। 

भाला फेंक को जब पहली बार ओलंपिक में शामिल किया गया तो एरिक लेमिंग ने अपनी बादशाहत कायम रखी। स्वीडन के इस एथलीट ने स्टैंडर्ड भाला  फेंक के साथ-साथ फ्रीस्टाइल भाला फेंक में गोल्ड मेडल अपने नाम किया। 

 100 मीटर थ्रो का रिकॉर्ड बना

फिर अगले कुछ दशकों में जैवलिन थ्रो की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ती चली गई। इसमें नॉर्डिक देशों के बजाय धीरे-धीरे मध्य यूरोप का दबदबा कायम होने लगा। इस इवेंट में जर्मनी के महान उवे हॉन ने इस खेल में क्रांति ला दी। 

उवे हॉन 100 मीटर की दूरी निकालने वाले पहले एथलीट बने। वह ऐसा करने वाले एकमात्र भाला फेंक एथलीट हैं। 1984 में हॉन ने बर्लिन में हुए खेलों में 104.8 मीटर तक भाला फेंककर ये रिकॉर्ड कायम किया था। 

उवे हॉन की ही कोचिंग में नीरज चोपड़ा ने टोक्यो ओलंपिक में भारत के लिए गोल्ड मेडल जीता था। 

डिजाइन में हुआ बदलाव 

हालांकि, 1986 का समय आया तो जैवलिन के डिजाइन में बदलाव आ गया। इसके बाद जैवलिन थ्रो के रिकॉर्ड को रीसेट किया गया था, जिसमें इसके गुरुत्वाकर्षण के केंद्र को बढ़ा दिया था। इस कदम ने दूरी को कम कर दिया और स्टेडियमों में उपलब्ध स्थान से भाला के आगे निकलने का खतरा कम हो गया। 

1999 में महिलाओं की भाला फेंक में भी इसी तरह का संशोधन किया गया था। दोबारा डिजाइन किए गए भाले की मदद से पहले कुछ सालों में 90 मीटर के निशान को पार करना भी मुश्किल था। हालांकि, तीन बार के ओलंपिक विजेता स्टीव बैकली ने साल 1992 में इस 90 मीटर से ज्यादा दूरी तक फेंक दिया। 

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