जाति आधारित जनगणना की बहस में ‘उचक्का’ की चर्चा

बिहार की जाति आधारित जनगणना सर्वे रिपोर्ट के बाद लगातार जातिगत अस्मिता और जाति के आधार पर पद दलित शोषित जातियों की चर्चा हर ओर हो रही है. ऐसे में 1998 में आई लक्ष्मण गायकवाड़ की पुस्तक ‘उचल्या’ का ध्यान अपने आप ही आ जाता है. मराठी में इसके मायने उचक्का के तौर पर अनुदित किया गया और हिंदी में इसका अनुवाद इसी नाम से आया भी. इसे उठाईगिर के तौर पर भी समझा जा सकता है. पुस्तक का प्रकाशन राधाकृष्ण प्रकाशन ने किया और अनुवाद डॉ. सूर्य नारायण रणसुभे ने किया. हिंदी के अलावा भी कई दूसरी भाषाओं में इस किताब का अनुवाद किया गया और इसे सराहना भी मिली. लक्ष्मण गायकवाड़ का जन्म महाराष्ट्र की एक घुमंतू आदिवासी जनजाति में हुआ. वे अपनी जनजाति के पहले पढ़े-लिखे व्यक्ति हैं. हालांकि उन्होंने अत्मकथा के अलावा मराठी में और भी उपन्यास लिखें हैं. लेकिन आत्मकथा ने उन्हें बहुत प्रसिद्धि दी.

अपराध कोई करे, छापा खास जातियों के ठिकानों पर
जिस जाति में लक्ष्मण का जन्म हुआ उसे ब्रिटिश हुक्मरानों ने जरायमपेशा जाति के तौर पर दर्ज कर रखा था. इसका असर ये था कि चोरी या कोई अन्य अपराध कहीं भी हो, पुलिस का छापा उनके कुनबे पर ही पड़ता. अपनी बाल्यावस्था में लक्ष्मण ने जो कुछ देखा उसका बहुत ही मार्मिक वर्णन उन्होंने अपनी आत्मकथा में किया है. खास बात ये है कि उन्होंने न तो इसमें कुछ छुपाने की चेष्टा की है और न ही बहुत कुछ बढ़ा-चढ़ा कर लिखा है. आजादी के दशकों बाद तक भारतीय पुलिस की कार्यप्रणाली एक हद तक उसी राह पर चलती रही, जो रास्ता उसे बिट्रिश हुक्मरानों ने दिखाया था. चोरी-डकैती कहीं हो वे कुछ खास जातिगत समुदायों पर ही पहला हमला करते थे.

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अपने मनोदशा का चित्रण करते हुए लक्ष्मण ने लिखा है कि ‘मैंने बचपन में मराठी की किताब में पढ़ा कि सभी भारतीय एक हैं और भाई-भाई हैं, तो मेरी समझ में नहीं आता कि अगर ये सही है तो क्यों हर बार पुलिस वाले हमारे ही लोगों को मारते पीटते हैं. क्यों मेरी मां की साड़ी पकड़ कर खीचते हैं और उन्हें गालियां देते हैं.’

अपनी जाति का वर्णन करते हुए लक्ष्मण गायकवाड़ ने लिखा है कि वैसे तो उनकी जाति में पढ़ने-लिखने जैसा कोई विचार ही नहीं होता था. हां, ट्रेनिंग जरूर होती थी. इसमें बच्चे के थोड़ा बड़े होते ही उसे पीटना शुरु कर दिया जाता था. ये पिटाई की ट्रेनिंग इसलिए दी जाती थी कि पुलिस के चंगुल में पड़ने पर पिटाई से टूट कर वे अपनी करतूत या चोरी के माल के बारे में बता न दे. साथियों का पता न दे दे. लक्ष्मण ने ये भी लिखा है कि बच्चों के और बड़ा होने पर पिटाई की आगे की ट्रेनिंग के लिए बच्चे को उन रिश्तेदारों के हवाले कर दिया जाता था जो उनकी और अधिक पिटाई कर उनकी सहन क्षमता को और बढ़ाएं. साथ ही ठगी के उपायों की भी ट्रेनिंग दी जाती थी.

भूख का चित्रण
लक्ष्मण ने अपनी किताब में लिखा है कि कई बार चोरी या ठगी में सफलता न मिलने की स्थिति में कैसे कई बार कई दिनों तक उन्हें भूखा रहना पड़ा. क्योंकि करने के लिए कुछ भी और नहीं था. इस जाति के लोगों के पास जमीन भी नहीं थी जिस पर वो कुछ उपजा सके. गांवों से के बाहरी सीमावर्ती बागीचों या ऊसर भूमि पर टिके कुनबे की भूख की पीड़ा का वर्णन भी लक्ष्मण ने बहुत ही मार्मिक तरीके से किया है.

1956 में पैदा हुए लक्ष्मण गायकवाड़ किसी तरह अपनी थोड़ी बहुत पढ़ाई के बाद समाज की मूल धारा में आते आते लक्ष्मण समाजसेवा के क्षेत्र में उतर जाते हैं. उन्होंने महाराष्ट्र की घुमंतू जातियों के कल्याण के लिए काम करना शुरु किया. उन्होंने अखिल भारतीय विमुक्त घुमंतू आदिवासी महासंघ की स्थापना की. इसके बैनर तले वे राज्य भर की जनजातियों में जागरुकता पैदा करने के साथ उनमें मानवाधिकारों की रक्षा करने की दिशा में काम कर रहे हैं.

Tags: Caste Census, Literature

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