चार राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम के बाद तस्वीर उभरी है, उससे एक बात फिर साबित हो गई है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी वास्तव में जीत की गारंटी बन गए हैं। उत्तर भारत के तीन बड़े राज्यों के चुनाव प्रचार और अन्य प्रचार माध्यमों का अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट परिलक्षित हो जाता है कि इन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी ने किसी भी प्रादेशिक नेता को मुख्यमंत्री के रूप में प्रचारित नहीं किया, केवल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरे को सामने रखकर ही भाजपा चुनावी मैदान में उतरी। आज पूरे देश में मोदी भाजपा के एक मात्र ऐसे चेहरे हैं, जिनसे मतदाताओं की सीधा जुड़ाव हो जाता है। वे अपनी सरकार के माध्यम से धरातल से जुड़ते हैं। इन चुनावों में सबसे बड़ा तथ्य यही है कि मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के पास प्रचार करने वाले नेताओं की बेहद कमी थी। भले ही कांग्रेस इस बात का दावा करती दिखाई दी कि वह फिर से सरकार बना रही है, लेकिन परिणामों के बाद कांग्रेस के वादे और दावों की हवा निकल गई।
आज जनता ने भारतीय जनता पार्टी पर जिस प्रकार से विश्वास जताया है, वह 2024 के लोकसभा चुनावों की राह को आसान करने वाला ही होगा। कांग्रेस ने इन चुनावों में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी को एक नायक की तरह फिर से स्थापित करने का प्रयास किया, लेकिन हर बार की तरह इस बार भी उनके यह प्रयास सकारात्मक परिणाम नहीं दे सके। कांग्रेस का यह प्रयास शायद इसलिए भी था, क्योंकि कांग्रेस राहुल गांधी को लोकसभा के चुनावों में प्रधानमंत्री के पद के लिए प्रस्तुत करने का सपना देख रही थी। इसी के साथ विपक्षी दलों के गठबंधन में कांग्रेस के नेता प्रमुख दल की हैसियत बनाना चाहती थी। चुनावों के बाद कांग्रेस की पराजय ने एक बार फिर से गठबंधन के बीच दरार पैदा होने की स्थितियां निर्मित कर दी हैं। इसके पीछे का एक मात्र कारण यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस के नेता आज भी अपनी गलतियों पर चिंतन नहीं कर रहे हैं, जबकि सत्य यही है कि पिछले दस सालों में कांग्रेस ने कोई उल्लेखनीय प्रगति नहीं की।
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा की विजय और कांग्रेस की पराजय के कई निहितार्थ हो सकते हैं। जिसमें सबसे पहले तो यही कहा जा सकता है कि कांग्रेस सनातन के विरोधियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी होती दिखाई दी। वर्तमान में जब भारत में देश भाव की प्रधानता विस्तारित होती जा रही है, तब स्वाभाविक रूप से यह भी कहा जा सकता है कि अब देश के विरोध को जनता किसी भी रूप में स्वीकार करने वाली नहीं है। यह सही है कि जो सनातन को मिटाने का प्रयास करेगा, वह निश्चित ही आत्मघाती कदम कहा जाएगा। यहां विचारणीय तथ्य यह भी है कि जो भारत को मजबूत बनाने की राजनीति करेगा, उसे सनातन से जुड़ना ही होगा। जो मोहब्बत की भाषा बोलकर चुनाव लड़ेगा, उसे हिंदुत्व से तालमेल रखना ही होगा। सनातन का विरोध करने वाली राजनीति के आधार पर देश भाव का प्रकटीकरण नहीं हो सकता। आज कांग्रेस की राजनीति का मुख्य सूत्र फूट डालो और राज करो जैसा ही लगने लगा है। कांग्रेस को चाहिए कि वह भारत की राजनीति करने का प्रयास करे, वामपंथ विचार की राजनीति नहीं। यहां वामपंथ की चर्चा इसलिए भी जरूरी है कि चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के एक बड़े नेता आचार्य प्रमोद कृष्णम ने यह खुलकर स्वीकार किया कि वर्तमान में कांग्रेस के अंदर वामपंथ के विचार को धारण करने वाले नेता घुस आए हैं, जब तक इन नेताओं को बाहर नहीं किया जाएगा, तब तक कांग्रेस का भला नहीं होगा। इसके साथ ही वे कहते हैं कि यह कांग्रेस की हार नहीं, बल्कि वामपंथ की हार है। यह बात सही है कि आज वामपंथ देश से पूरी तरह से समाप्त हो गया है, लेकिन कांग्रेस उसे संजीवनी देती हुई दिखाई दे रही है। कांग्रेस अगर अपने स्वयं के सिद्धांतों पर राजनीति करे, तो वह अपने खोई विरासत को बचाए रख सकती है, लेकिन ऐसा लगता नहीं है। क्योंकि आज कांग्रेस अपनी भूल का प्रायश्चित करना ही नहीं चाहती।
पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम को हालांकि भाजपा की अप्रत्याशित विजय के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, लेकिन तेलंगाना में कांग्रेस ने बहुमत की सरकार बनाई है। हालांकि यह विजय प्रादेशिक नेताओं के राजनीतिक प्रभाव का परिणाम है। इसे केंद्रीय नेतृत्व की सफलता के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। क्योंकि केंद्रीय नेतृत्व की जनमानस में स्वीकार्यता होती तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इसका असर दिखाई देता। खैर… अब कांग्रेस को आत्ममंथन करना चाहिए कि वह इस तरह से अपना जनाधार क्यों खो रही है। इसके पीछे का एक मात्र कारण यह भी माना जा सकता है कि आज उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे भले ही कांग्रेस के सर्वेसर्वा हैं, लेकिन कांग्रेस के नेता उन्हें इस रूप में आज भी स्वीकार करने की मानसिकता नहीं बना सके हैं। कांग्रेस की पराजय का एक कारण यह भी माना जा सकता है कि कांग्रेस उन राजनीतिक दलों का सहारा लेने में भी संकोच नहीं कर रही, जो गाहे बगाहे सनातन को कठघरे में खड़ा करने का कुत्सित प्रयास करते हैं। आज देश का दृश्य परिवर्तित हुआ है। मानसिकता में भी व्यापक परिवर्तन हुआ है। इसलिए राजनीति में जो सच है, वही कहना चाहिए। कांग्रेस को झूंठ की राजनीति के सहारे नहीं चलना चाहिए। राहुल गांघी का झूंठ कई बार प्रमाणित हो चुका है और कई बार माफी मांग चुके हैं।
आज देश की राजनीति का अध्ययन किया जाए तो यह स्वीकार करना ही चाहिए कि नरेंद्र मोदी एक ऐसे प्रभावशाली नेता बन चुके हैं जिनको देश सुनता है। ऐसे में कांग्रेस को चाहिए कि वह अपनी राजनीति में केवल अपनी ही बात करे, जितनी मोदी की आलोचना होगी, मोदी का कद और बड़ा होता जाएगा। यह राजनीति की वास्तविकता है कि मोदी का प्रचार जितना भाजपा ने नहीं किया, उससे ज्यादा विपक्षी दलों ने कर दिया। कांग्रेस इसलिए भी कमजोर हो रही है कि उसके नेता आज भी यह मानने को तैयार नहीं हैं कि वह केंद्र की सत्ता से बाहर हो चुके हैं। कांग्रेस के नेताओं की भाषा में एक अहम झलकता है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस की पराजय का कारण भी दंभ की राजनीति है। इसलिए अब कांग्रेस के नेताओं को इस बात पर विचार करना चाहिए कि उसका खोया हुआ वैभव कैसे वापस लाया जा सकता है। अगर ऐसा नहीं हो सका तो स्वाभाविक मोदी देश की एक बड़ी गारंटी बने रहेंगे।
-सुरेश हिंदुस्तानी
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)