क्योंकि जीना इसी का नाम है…

पिछले 5 वर्षों में मेरे परिवार की रूपरेखा ही बदल गई, जिस परिवार के दम पर मैं बेफिक्र ज़िंदगी जी रहा था वो अब यादों मैं समा गया. 2018 की शुरुआत से जो दर्द, परेशानी, घुटन मेरे घरवालों ने झेली, उसके लिए शायद मेरे शब्द कम पड़ जाए. पापा और बड़े  भाई को एक साथ कैंसर डिटेक्ट हुआ. पापा को मल्टीपल मायलोमा, मायलोमा बोन मेरो में पाई जाने वाली कोशिकाओं का एक ब्लड कैंसर है. बोन मेरो हड्डियों के अंदर कोमल ऊतक होता है, जो सामान्य रूप से हमारे ब्लड के विभिन्न भागों का निर्माण करता है. प्लाज्मा कोशिकाएं एंटीबॉडीज बनाती हैं, जो कीटाणुओं के हमले के समय लड़ती हैं और रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाती है. मायलोमा तब शुरू होता है जब स्वस्थ प्लाज्मा कोशिकाएं बदल जाती हैं और नियंत्रण से बाहर हो जाती हैं. इसकी वजह से हड्डी में कई तरह के घाव हो सकते हैं जो हड्डी के फ्रैक्चर के जोखिम को बढ़ा देते हैं. इसी दौरान भाई को भी मुंह का कैंसर हुआ.

मेरी ज़िंदगी के दो अहम लोग बीमारी से जूझने लगे. इसे देख कर मेरा मनोबल टूट गया लेकिन दोनों की हिम्मत देखकर कुछ हौसला बढ़ा. शुरुआती इलाज़ के बाद पापा की तबियत थोड़ी ठीक हुई तो सारा ध्यान भाई पर लगा. पापा को दिल्ली ले आया तो भाई का इलाज़ कोलकाता के मशहूर टाटा मेडिकल सेंटर में शुरू हुआ. मां और भाभी ने भी हिम्मत रखी और पूरे परिवार ने मिल कर मोर्चा थामे रखा. भाई का ऑपरेशन काफ़ी मुश्किल था. करीब 12 घंटे की मेहनत के बाद डॉक्टर ने उसे एक नई ज़िंदगी दी. हालांकि, ये इतना आसान भी नहीं था. उसके बाद रिकवरी प्रोसेस अपने आप में किसी चुनौती से कम नहीं था. इसी दौरान पापा का इलाज दिल्ली के धर्मशीला कैंसर हॉस्पिटल में शुरू हुआ. कोलकाता और दिल्ली एयरपोर्ट पर मेरी अटेंडेंस हर महीने लगने लगी थी, साथ में ऑफिस भी जारी रहा. इस दौरान ऑफिस और वहां के हर साथियों का पूरा सहयोग मिला. घर और ऑफिस दोनों जगह मेरी जिम्मेदारियां बढ़ चुकी थीं. वो कहते हैं ना- अक्सर लोगों में तभी समझदारी आती है, जब कन्धों पर घर की जिम्मेदारी आती है. शायद अब मैं समझदार हो चला था. वक्त के साथ जब सब ठीक चल रहा था तभी 2019 में पापा का संघर्ष खत्म हो गया.

पापा के जाने के बाद भाई की तबीयत कुछ ठीक हो चुकी थी. लगा ज़िंदगी थोड़ी संभल जायेगी लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था. पापा के जाने के बाद उनके छोटे भाई यानि मेरे चाचाजी ने हमें हिम्मत दी. मुश्किल दिनों में वो साथ रहे. उनकी तबीयत अचानक से ख़राब होनी शुरू हुई और वो भी पिछले साल इस दुनिया को अलविदा कह गए. इसके बाद मेरी सहने की शक्ति बढ़ गई.

पापा के केस में पहली बार पता चला कि कैंसर रिलैप्स यानि दोबारा होता है. और भाई के केस में इसी साल मई महीने में उनका दोबारा ऑपरेशन हुआ, डरा हुआ मैं ज़रूर था लेकिन उम्मीद ने दामन नहीं छोड़ा. हर महीने चेकअप का सिलसिला जारी रहा और वो बेहतर होने की राह पर थे. अक्टूबर में जब डॉक्टर ने चेकअप किया तब सब ठीक था, कुछ छोटी-छोटी परेशानी थी लेकिन भाई और मां, भाभी और परिवार के सभी लोगों ने मोर्चा संभाले रखा. 12 नवंबर को जब देश दिवाली माना रहा था तो मेरे सीने में अंधेरा घर कर चुका था. भाई को उस रात 11 बजे मैंने वीडियो कॉल पर देखा, मन बेचैन हो चला, लगा कुछ ठीक नहीं है. उसके चेहरे को देख कर दिल भर गया, उसकी शून्य में देखती आंखें आजतक नहीं भूल पाया. कॉल बीच में ही खत्म कर क़रीब आधे घंटे तक मैं रोता रहा. फिर दिल को तसल्ली दी सब ठीक होगा.

अगले दिन, बिहार का सबसे बड़ा पर्व छठ के लिए घर जाना था, डायरेक्ट पटना का टिकट नहीं मिला तो बनारस होते हुआ पहुंचने का प्लान था. क्या पता था ये सफ़र लंबा होना वाला था. बीच रास्ते भाभी का फोन आया की भाई की तबीयत ठीक नहीं है, हॉस्पिटल ले जाना होगा आप आएं तो ले चलते हैं. तबीयत और बिगड़ी तो उन्होंने अस्पताल में एडमिट करा दिया. घर पहुंचते ही मैं सीधा अस्पताल पहुंचा, रात भर वहीं रहा, इलाज चलता रहा पर कुछ फायदा नहीं दिखा. डॉक्टर ने बताया की कैंसर फेफड़ों में पहुंचा गया है और अब कुछ नहीं किया जा सकता. 14 नवंबर को सवेरा तो हुआ लेकिन हमारी ज़िंदगी में हमेशा के लिए अंधेरा कर गया.

भाभी के चेहरे की मुस्कान चली गई, मां की आंखें उसे अब भी तलाश करती है. मेरे लिए सबसे परेशानी की बात है, 9 साल के मेरे भतीजे का सवाल-  ‘पापा की जगह कौन उसे देखेगा, चाचा आप तो दिल्ली चले जायेंगे’.  इस सवाल का जवाब अब भी मैं तलाश रहा हूं.

मैं तो अब पत्थर-सा हो गया हूं, भावनाएं खत्म हो गई है, संभलने की कोशिश जारी है. परिवार को देखने की भी जिम्मेदारी है, इसलिए मुस्कुरा रहा हूं मैं.

सौमित मोहन NDTV में असिस्टेंट न्यूज एडिटर हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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