बिहार की सीएम नीतीश कुमार सरकार ने राज्य में जातियों के सर्वे के नतीजे सोमवार को जारी कर दिए. आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में अति-पिछड़ा वर्ग यानी ईबीसी और अन्य पिछड़ा वर्ग यानी ओबीसी को मिलाकर पिछड़ा वर्ग की कुल आबादी 63 फीसदी से ज्यादा है. वहीं, राज्य में सवर्ण 15.5 फीसदी के आसपास ही हैं. बता दें कि जाति संख्या के आधार पर पूरे देश के आंकड़े 1931 की जनगणना के बाद जारी किए गए थे. जातियों की गणना लंबे समय से आरक्षण की मांग से जुड़ा राजनीतिक मुद्दा रहा है. बीजेपी के केंद्रीय नेतृत्व ने विपक्ष के हंगामे के बावजूद जातिगत जनगणना का विरोध किया है. बिहार सरकार की ओर से जारी किए गए जातिगत सर्वे के नतीजे चौंकाने वाले नहीं हैं, लेकिन ये बेहद अहम हैं.
जातिगत सर्वे के आंकड़े बिहार में नई सियासी लड़ाई को हवा दे सकते हैं. ये आंकड़े बीजेपी के हिंदुत्व प्लस कल्याण के एजेंडे के लिए कड़ी चुनौती पेश कर सकते हैं. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता राहुल गांधी ने सोशल मीडिया पर लिख भी दिया है कि बिहार की जातिगत जनगणना के मुताबिक राज्य में ओबीसी, एससी और एसटी की कुल आबादी 84 फीसदी हैं. केंद्र सरकार के 90 सचिव में 3 ओबीसी हैं. इसीलिए भारत के जाति आधारित आंकड़े जानना अहम है. वहीं, बिहार सरकार का कहना है कि जाति आधारित जनगणना के आंकड़ों के आधार पर सरकारी योजनाएं बनाने में मदद मिलेगी. साफ है कि बिहार में लगातार कम हो रहे सवर्णों पर किसी भी सियासी दल का ध्यान नहीं है. ऐसे में राज्य की राजनीति में सवर्ण किनारे किए जा सकते हैं.
ये भी पढ़ें – बिहार ने क्यों कराई जातिगत जनगणना, क्या होंगे फायदे और नुकसान? कैसे पूरा हुआ प्रॉसेस
क्या बीजेपी के वोट बैंक में सेंध लगा सकता है विपक्ष?
आरजेडी नेता और बिहार के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव का कहना है कि जातिगत सर्वे के नतीजों में मिले आंकड़ों से हर वर्ग की आर्थिक स्थिति का भी पता चला है. अब आर्थिक न्याय का दौर है. सरकार की कोशिश होगी कि आंकड़ों के आधार पर विशेष योजना बनाकर लोगों को फायदा दिया जाए. जातियों के आंकड़े बताते हैं कि बिहार में ब्राह्मणों और राजपूतों की कुल आबादी महज 7 फीसदी है. लिहाजा, हर सियासी दल पिछड़े वर्ग और अति पछड़े वर्ग को अपने साथ जोड़ने पर ज्यादा ध्यान देगा. आंकड़े सार्वजनिक होने के बाद आबादी में हिस्सेदारी के लिहाज से अलग-अलग वर्ग के नेताओं की अहमियत बढ़ सकती है. जातिगत संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग कर विपक्ष दलितों और पिछड़ों के वोट बैंक को अपनी तरफ लाने की कवायद में जुट जाएगा. इससे विपक्ष को बीजेपी के हिंदू वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाबी मिल सकती है.
विधानसभा में किसका कितना है प्रतिनिधित्व?
बिहार में ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार और कायस्थों की कुल आबादी 10 फीसदी है. वहीं, इनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व 25.92 फीसदी से भी ज्यादा है. बिहार विधानसभा की 243 सीटों में 63 पर ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ और भूमिहार समुदाय के विधायक हैं. चारों समुदायों में ब्राह्मण सबसे ज्यादा होने के बाद भी प्रतिनिधित्व कम है. बिहार में 14% यादव और 18% मुस्लिम हैं. बिहार में यादव-मुस्लिम गठजोड़ के सहारे आरजेडी लंबे समय से सियासत कर रही है. सर्वे रिपोर्ट से साफ है कि मुसलमानों की आबादी यादवों से ज्यादा है. इसके उलट यादवों का प्रतिनिधित्व ज्यादा है. बिहार विधानसभा चुनाव 2020 में 52 यादव और 19 मुस्लिम विधायक बने. आकलन किया जाए तो 14% यादवों का प्रतिनिधित्व 21% और 18% मुस्लिमों का प्रतिनिधित्व 1% से कुछ ही ज्यादा है. ईबीसी की बात करें तो 36% आबादी के बाद भी विधानसभा में प्रतिनिधित्व सिर्फ 7% है.
क्या टिकट बंटवारे में पार्टियों को होगी दिक्कत?
जातिगत सर्वे में सामने आए आंकड़ों को देखा जाए तो बिहार में ज्यादातर वर्गों के प्रतिनिधित्व और आबादी के बीच सामंजस्य नहीं है. कई समुदायों की आबादी ज्यादा होने के बाद भी उनका प्रतिनिधित्व कम है, जबकि कुछ वर्गों की आबादी कम है, लेकिन विधानसभा में उनके विधायकों की संख्या ज्यादा है. जातिगत सर्वे के नतीजे सामने आने के बाद सियासी दलों को जाति संख्या के आधार पर उम्मीदवार उतारने की चुनौती होगी. मौजूदा समय में बिहार में यादव और सवर्ण विधायकों की संख्या ज्यादा है. अब जाति के अनुपात में टिकट बंटवारे की मांग शुरू हो सकती है. इससे सभी राजनीतिक दलों के सामने टिकट बंटवारे में काफी दिक्कतें आ सकती हैं. लोकसभा चुनाव 2024 और बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में जहां मौजूदा विधायक टिकट के लिए अपनी दावेदारी पेश करेंगे, वहीं पार्टियों के सामने आंकड़ों के हिसाब से बंटवारे का दबाव होगा.
ये भी पढ़ें – 22 गज की ही क्यों होती है क्रिकेट पिच, 20 या 24 गज की क्यों नहीं? कितनी होती है चौड़ाई
सियासी पार्टियों के पास क्यों होंगे विकल्प?
सियासी जानकारों का कहना है कि बिहार में यादव-मुस्लिम या ओबीसी-एससी, एसटी गठजोड़ की राजनीति करने वाले दलों के सामने जब टिकट बंटवारे की चुनौती खड़ी होगी तो वे सवर्ण प्रत्याशियों का टिकट काटने का विकल्प चुन सकती हैं. दूसरे शब्दों में कहें तो जाति संख्या के अनुपात में टिकट बंटवारा करने के लिए सवर्णों के टिकट काटकर भरपाई की जा सकती है. अगर ऐसा होता है तो सियासी अखाड़े में अपनी मौजूदगी बनाए रखने के लिए सवर्णों के पास निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में उतरने का विकल्प होगा. बता दें कि बिहार की राजनीति में पहले सवर्णों का ही बोलबाला था. बाद में बिहार की सियासत में ओबीसी समुदाय का दबदबा बढ़ता चला गया, जो आज भी कायम है. आंकड़े के आधार पर ईबीसी समुदाय कह सकता है कि अगली बारी हमारी है. ये वर्ग बिहार की राजनीति में अपनी हिस्सेदारी को लेकर नए सिरे से दावा कर सकता है.
क्या सवर्ण मतदाताओं की अहमियत घटेगी?
आंकड़ों से साफ है कि पहले ही आपस में बंटे हुए सवर्णों की अलग-अलग संख्या सियासी दलों के लिए चुनावी समीकरण साधने के लिहाज से खास मायने नहीं रखेगी. ऐसे में सभी राजनीतिक दल लोकसभा और विधानसभा चुनावों में पिछड़े, अति-पिछड़े, मुस्लिम और एक फीसदी से कम आबादी वाले समुदायों को लुभाने की कवायद में जुट जाएंगे. इससे सवर्ण नेता ही नहीं, मतदाताओं के सामने भी नजरअंदाज किए जाने या कहें कि सियासी मैदान में हाशिये पर धकेले जाने का खतरा बढ़ जाएगा. ज्यादातर सियासी दलों के घोषणापत्र भी बहुसंख्यक जातियों को ध्यान में रखकर ही बनाए जाएंगे. बता दें कि सवर्ण समुदाय को बीजेपी का वोटबैंक माना जाता है. अगर सर्वे के आंकड़ों के परिप्रेक्ष्य में सवर्ण समुदाय के बीच वोटिंग पैटर्न बदला तो सवर्ण बनाम ओबीसी की राजनीति को विपक्षी दल, खासकर आरजेडी धार दे सकते हैं.
ये भी पढ़ें – चाय पीने से क्यों उड़ जाती है नींद? कौन-सी चाय सोने में करती है मदद
क्या बदल जाएंगी सरकार की नीतियां?
राजनीतिक दल अगर पिछड़े और अति-पिछड़े समुदायों की राजनीति के दम पर जीतकर सत्ता में आएंगे तो सरकार की ज्यादा से ज्यादा नीतियां भी उन्हीं के हिसाब से तय होंगी. इससे बिहार में फिर से मंडल और कमंडल का घमासान शुरू होने का खतरा पैदा हो सकता है. यही नहीं, बिहार में धर्म की राजनीति पर जाति की सियासत भारी पड़ सकती है. विपक्षी दल मौके का फायदा उठाने के लिए जाति से जुड़े मुद्दों को हवा देकर अपनी सियासत चमका सकते हैं.
कोटा की 50% सीमा पर तेज हो सकती है बहस
सर्वे के नतीजे ओबीसी आरक्षण को 27% से ज्यादा बढ़ाने और ईबीसी के लिए कोटा के भीतर कोटा की मांग को बढ़ा देंगे. बिहार सर्वे दूरे राज्यों को भी ऐसी ही कवायद करने के लिए मजबूर कर सकता है. इंद्रा साहनी बनाम भारत संघ (1992) मामले में सुप्रीम कोर्ट की ओर से आरक्षण पर लगाई गई 50% की सीमा पर बहस को सर्वे के आंकड़े तेज कर सकते हैं. यह सीमा प्रशासन में दक्षता सुनिश्चित करने के लिए लगाई गई थी. अदालतों ने राज्यों की ओर से इस सीमा का उल्लंघन करने की कई कोशिशों को रोक भी है. बिहार में जाति सर्वेक्षण के नतीजे जदयू-राजद को नए सिरे से पिछड़े वर्ग की लामबंदी का मौका दे सकते हैं. विपक्षी ‘इंडी गठबंधन’ आने वाले दिनों में देशव्यापी जाति जनगणना कराने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बना सकता है.
.
Tags: Bihar Assembly Elections, Bihar BJP, Caste Census, Caste Reservation, Chief Minister Nitish Kumar, JDU news, RJD
FIRST PUBLISHED : October 3, 2023, 15:53 IST