क्या उत्तराखंड के शहरी क्षेत्रों से गुम हो जाएगी जल संरक्षण की ये सदियों पुरानी तकनीक?

हिमांशु जोशी/ पिथौरागढ़. उत्तराखंड के पर्वतीय इलाकों में सदियों से लोग पीने के पानी के लिए नौले का उपयोग करते आए हैं. यह पहाड़ों में भूमिगत जल स्रोतों के संरक्षण की एक बहुत पुरानी परंपरा है, नौले को विशेष आकार और तकनीक से बनाया जाता था और पहाड़ी सभ्यता के लोग इन नौले में एकत्रित शुद्ध जल को पीने के पानी के रूप में उपयोग करते हैं. इन पर पूरे गांव की आबादी आज भी निर्भर रहती है. हर गांव का अपना एक नौला होता है, जिसके संरक्षण का जिम्मा भी गांव के लोगों पर ही रहता है.

पहाड़ों में कभी नौले और धारे ही पीने के पानी के मुख्य साधन हुआ करते थे. आज भी ग्रामीण क्षेत्रों के लोग पीने के पानी के लिए इन नौलों पर ही निर्भर हैं. एक तरफ जहां ग्रामीण क्षेत्रों में यह नौले आज भी संरक्षित हैं, तो वहीं पिथौरागढ़ शहर में बढ़ती आबादी और शहरीकरण से नौले का पानी प्रदूषित हो गया है. उसके बाद एक बड़ा प्रश्न उठने लगा है की क्या उत्तराखंड के शहरी इलाकों से शुद्ध पेयजल के लिए बनी भूमिगत जल संरक्षण की सबसे पुरानी तकनीक गायब हो जाएगी.

मेलडूंगरी गांव में है 18वीं सदी में बना नौला
पिथौरागढ़ शहर से 30 किलोमीटर दूर मेलडूंगरी गांव में सन 1800 में बना एक प्राचीन नौला आज भी देखने को मिलता है. यहां के ग्रामीणों ने इस नौले को सहेज कर रखा है. पूरा गांव इसी नौले के पानी पर निर्भर है. स्थानीय महिला रेखा जोशी ने बताया कि गांव में पीने के पानी के अलावा भी सभी काम इस नौले के पानी से ही किए जाते हैं. आज भी गांव की महिलाएं इस नौले की पूजा करती हैं.

भूमिका जल संरक्षण की प्राचीन तकनीक
उत्तराखंड में इन नौलों और धारों का ऐतिहासिक व सांस्कृतिक दृष्टि से भी अत्यंत महत्व है. यहां के पहाड़ी इलाकों में कई नौले अत्यंत प्राचीन हैं. उत्तराखंड में विवाह और अन्य विशेष अवसरों पर नौलों-धारों में जल पूजन की भी समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा दिखाई देती है, जो एक तरह से मानव जीवन में जल के महत्व को इंगित करती है. जरूरत है तो इन नौलों के संरक्षण की, जिससे पर्यावरण का सतत विकास तो होगा ही, साथ ही सांस्कृतिक विरासत के तौर पर हिमालय की यह पुरातन परंपरा आगे कई पीढ़ी तक पहुंच सकेगी.

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