कुल्हड़ ने बदली इस इलाके की किस्मत! फिर चाक की ओर लौटे कुम्हार

अभिनव कुमार/दरभंगा : चाय भला किसे पसंद नहीं है. अगर वह कुल्हड़ में मिल जाए तो मजा ही आ जाता है. पर एक कुल्हड़ से कई जिंदगी रोशन हो रही है. आप सही सुन रहे हैं. क्योंकि इसको बनाने वाले कुम्हार समुदाय के चाक की रफ्तार बढ़ गई है. एक समय ये लोग मिट्टी के बर्तनों पर पूरी तरह से निर्भर हुआ करते थे. लेकिन मिट्टी के बर्तनों का प्रचलन धीरे-धीरे समाप्त होने के बाद इन पर सबसे ज्यादा असर पड़ा है. लेकिन आधुनिकता के दौर में बड़े-बड़े होटलों में कुल्हड़ वाली चाय जब से आई है, तब से मिट्टी के प्याले की बिक्री बढ़ गई है. इन समुदाय के लोगों के चेहरे पर खुशी झलकने लगी है.

फिर पारंपरिक काम में लौटे कुम्हार
अपने पारंपरिक व्यवसायिक को छोड़ चुके कई कुम्हार फिर से इसमें हो रहे फायदे को देखते हुए इसकी शुरुआत किए हैं. ऐसे ही कुम्हार समुदाय से आने वाली राजो देवी बताती है कि पहले इसकी बिक्री नहीं हुआ करती थी, अब इसकी बिक्री हो रही है. चाय वाले इसको खरीद रहे हैं. पहले इसके खरीदार नहीं थे तो हालत गरीबी में चल रही थी. इसलिए दूसरा पेशा अपनाना पड़ा था. अब शहर के बड़े-बड़े होटलों से लोग गांव आकर इसको खरीद कर ले जा रहे हैं. लोग मिट्टी के बर्तन में चाय पीना ज्यादा पसंद कर रहे हैं.

रोजाना 3 हजार से 4 हजार कुल्हड़ों की होती है बिक्री
बहादुरपुर के फेकला के पास कुम्हार की इस टोले में प्रत्येक कुम्हार रोजाना 200 से 400 चाय की प्याली बना लेते हैं. इसे बीच भी लेते हैं दोबारा से जुड़े अपने पारंपरिक व्यवसाय में राजो देवी से जब आगे हमने बात की तो उन्होंने बताया कि पहले इसकी बिक्री नहीं होती थी. इसलिए इसको बनाना छोड़ दिए. लेकिन अब यह बिकने लगा है. सिर्फ इस कुम्हार टोल से रोजाना 2 हजार पीस कुल्हड़ बिक रही है.

1.5 और 2 रुपया पीस की बिक्री होती है. यानी रोजाना 3 से 4 हजार की बिक्री होती है. तो कह सकते हैं कि आधुनिकता के दौर में जिस प्रकार से कुल्हड़ वाली चाय का दौड़ एक ट्रेंड के तौर पर लोगों के सामने उभरा है. उसे शायद कई लोगों को पता भी नहीं होगा कि एक समुदाय कितना खुश और आनंद है.

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