किसानों ने फिर से दिल्ली कूच करने के लिए आन्दोलन प्रारम्भ कर दिया है। उनके प्रतिनिधियों के साथ केन्द्र सरकार के मन्त्रियों की कई दौर की बैठकें भी विफल ही रही हैं। इस बीच यह किसान आन्दोलन निरंतर नए मोड़ और नए रंग ढंग में दिख रहा है। यदि किसानों की मांगों को देखा जाए तो किसानों एवं अर्थव्यवस्था से जुड़े हुए कई विषय विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है- तकनीकी एवं प्रायोगिक रूप से ये अधिकांशतः मांगें ऐसी हैं जिन्हें पूरा करना सम्भव नहीं है। साथ ही ये देश की अर्थव्यवस्था एवं नीतियों पर विपरीत प्रभाव डालने वाली हैं। वर्तमान में यदि केन्द्र सरकार द्वारा 22 फसलों पर दिए जाने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की ही बात करें तो यह देश की जीडीपी का 2 प्रतिशत भाग है। जबकि देश के रक्षा बजट के लिए 1.7 प्रतिशत और स्वास्थ्य जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्र के लिए जीडीपी से 2.1 प्रतिशत राशि आवंटित की जाती है। साथ ही एमएसपी का सर्वाधिक हिस्सा पंजाब के 43 लाख 33 हजार किसानों के खाते में ही जाते हैं। अतएव मुख्य मुद्दे सभी फसलों पर एमएसपी को लेकर केन्द्र सरकार क्या निर्णय लेती है, यह भविष्य में देखते ही बनेगा। किन्तु इन सबके बीच यह किसान आन्दोलन जिस ढंग से अशांति की ओर बढ़ता जा रहा है। उससे इसकी मंशा पर सवाल उठने लगे हैं।
वस्तुत: समूचा देश अपने किसानों के हित से जुड़े हुए मुद्दों में हमेशा साथ खड़ा रहता। यह आवश्यक भी है कि केन्द्र एवं राज्य सरकारें किसानों की दशा एवं दिशा सुधारने के लिए पर्याप्त कदम उठाएं। ऐसी नीतियां एवं कार्य-प्रणालियां विकसित करें जिनसे किसान समृध्दि की ओर बढ़ सकें। जहां किसानों से जुड़े हुए आन्दोलन यदि शांतिपूर्ण ढंग से होते हैं तो उसमें एकजुटता दिखती है। वहीं इसका सकारात्मक परिणाम भी सामने निकलकर आता है। किन्तु वर्तमान में पंजाब के सिख किसानों द्वारा किया जाने वाला आन्दोलन अपनी राह एवं उद्देश्य से पूरी तरह हटा हुआ दिख रहा है। इस किसान आन्दोलन में ‘किसान’ गौण होता हुआ और योजनाबद्ध राजनीति चरम पर देखने को मिल रही है।
वर्तमान में दिखने वाला यह पैटर्न हाल ही के वर्षों में ‘भीड़तन्त्र’ की दादागीरी के रूप में उभरा है। जो कहीं भी किसी भी प्रकार से कानून व्यवस्था को धता बताने और उपद्रव को अपना अधिकार समझता है। आखिर ये कैसे आन्दोलन और प्रदर्शन हैं ? जो हिंसा, उत्पात मचाते हुए कानून व्यवस्था के विरुद्ध खड़े होते हैं। एक संगठित भीड़ कहीं भी किसी भी सड़क व स्थान को घेर लेती है। यातायात को बुरी तरह बाधित कर आम जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया जाता है। क्या किसी भी आन्दोलन के नाम पर ऐसा किया जाना सही ठहराया जा सकता है ?
इस समय पंजाब के सिख किसानों ने आन्दोलन के नाम पर जिस ढंग का वातावरण उत्पन्न किया है। उससे उनकी गतिविधियां किसान हितैषी नहीं बल्कि संदिग्ध एवं राजनीति प्रेरित ही दिख रही हैं। वर्ष 2021 में 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस के अवसर पर जिस प्रकार से ट्रैक्टर मार्च के नाम पर उपद्रव किया गया। सशस्त्र हिंसा एवं उत्पात मचाते हुए दिल्ली को बंधक बना लिया गया था। लाल किले में धार्मिक प्रतीक के झंडे को फहराया गया और पुलिसकर्मियों के साथ हिंसा की गई। यातायात को बुरी तरह बाधित किया गया। आम जनजीवन को बेपटरी करने का प्रयास किया गया। ठीक उसी प्रकार के दृश्य फिर से दिखाई देने लगे हैं। बल्कि उससे और अधिक खतरनाक मंसूबे वाले कृत्य लगातार सामने आ रहे हैं। हरियाणा बॉर्डर से जिस ढंग के दृश्य और हालात सामने आ रहे हैं वह किसी को भी दहला कर रख देने वाले हैं। इस किसान आन्दोलन में खालिस्तानी आतंकी भिंडरावाले के फोटो और खालिस्तान के समर्थन वाले गाने बजते दिखाई दे रहे हैं। खालिस्तान जिन्दाबाद लिखे हुए बड़े-बड़े गुब्बारे आसमान में उड़ाए जा रहे हैं।
हरियाणा बॉर्डर में कानून व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस ने बैरिकेडिंग कर रखी है। साथ ही अन्य सुरक्षात्मक उपाय बनाए हुए हैं। लेकिन आन्दोलन के नाम पर संगठित गिरोह के द्वारा कभी भी किसी भी समय पुलिस बल पर पथराव एवं सशस्त्र हमले किए जा रहे हैं। पुलिस बल के खिलाफ हिंसा करने के नारे एवं नफरती भाषण दिए जा रहे हैं। इतना ही नहीं ट्विटर (एक्स) सहित अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म में खनौरी बार्डर के वे वीडियो भी सामने आए जिनमें किसान पुलिस पर लाठियां चलाते हुए दिख रहे थे। साथ ही पुलिस की ओर ऐसे पटाखों से हमला किया जा रहा था जोकि दूर जाकर फटते हैं। इन दृश्यों को देखकर ऐसा लगता है जैसे यह किसान आन्दोलन नहीं बल्कि कानून व्यवस्था एवं सरकार के विरुद्ध युद्ध की घोषणा है।
इतना ही नहीं इस किसान आन्दोलन के नाम पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ घ्रणा और हिंसा प्रेरित बयान भी दिए जा रहे हैं। मोदी को मारने की धमकियां देने वाले नारे और भाषण दिए जा रहे हैं। इसी आन्दोलन का एक बड़ा चेहरा माना जाने वाले सिद्धूपुर के प्रधान जगजीत सिंह डल्लेवाल का एक वीडियो वायरल हुआ। इस वीडियो में डल्लेवाल यह कह रहा है कि राम मंदिर बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ग्राफ बहुत बढ़ गया था, उसे नीचे लाना है। समय कम है। इसी तरह से एक अन्य किसान नेता इस आन्दोलन को विपक्ष की लड़ाई, ओपीएस, अग्निवीर आदि से जोड़कर बताता हुआ नज़र आया। क्या प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को मारने की धमकी और उनके विरुद्ध हिंसात्मक- बयानबाजी किसान आन्दोलन का लक्ष्य है ? क्या मोदी की लोकप्रियता को कम करना और राजनीतिक उद्देश्य साधना ही इस किसान आन्दोलन की थीम है? क्या ऐसे में इसे किसान आन्दोलन कहा जा सकता है?
वहीं किसान आन्दोलन में देखें तो लाखों रुपए के नए नए ट्रैक्टर, उनमें महंगे-महंगे साउंड सिस्टम, लग्जरी सुविधाएं, वैनिटी बैन के रूप में ट्रैक्टर ट्राली को बनाकर रखना हैरानी पैदा करता है। कानूनी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए पुलिस के सुरक्षात्मक प्रबंध को तोड़ने के लिए ‘पोकलेन मशीनें’ लाई जा रही हैं। ये पोकलेन मशीनें वही मशीनें हैं जिनका उपयोग पहाड़ों को तोड़ने, सुरंग आदि बनाने में किया जाता है। किसान आन्दोलन के नाम पर किए जा रहे ये सारे काम क्या किसी भी दृष्टि से जायज़ कहलाए जाएंगे ? यह विचारणीय विषय है कि किसान आन्दोलन के नाम पर जो कुछ भी हो रहा है क्या वह किसान हितैषी है ? क्या इनमें कहीं किसान दिख रहा है? क्या इन सब बातों, दृश्यों और कृत्यों से राजनीति प्रेरित – ‘संदिग्ध’ दृश्य सामने नहीं आ रहे हैं? प्रश्न तो ये भी हैं कि क्या किसान आन्दोलन के नाम अराजकता एवं उत्पात को उचित कहा जा सकता है ? जिस प्रकार से आन्दोलन के नाम पर एक संगठित भीड़तन्त्र- देश की कानून व्यवस्था के विरुद्ध खड़ा है। हिंसात्मक गतिविधियां की जा रही हैं उसे देशविरोधी न कहा जाए ? क्या हमारे संविधान ने आन्दोलन के नाम पर उपद्रव, हिंसा एवं आमजनजीवन को बाधित करने की छूट दे रखी है?
इसके साथ ही जिस ढंग से इस आन्दोलन में भारत-विरोधी संदिग्ध गतिविधियां हो रही हैं। ऐसे में क्या इस आन्दोलन में विदेशी शक्तियाँ भी लगी हुई हैं? क्या जार्ज सोरोस गिरोह इस आन्दोलन में प्रवेश कर चुका है? क्या भारत-विरोधी टूलकिट गैंग फिर से सक्रिय हो चुका है? जो भारत की कानून व्यवस्था तोड़ने के लिए इस आन्दोलन को ढाल बना रहा है?
क्या आगामी लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए यह आन्दोलन चलाया जा रहा है? ऐसे कई सारे प्रश्न इस किसान आन्दोलन की संदिग्ध गतिविधियों के कारण उठ रहे हैं। इन सभी वाकियों से यही निष्कर्ष निकल रहा कि ‘किसान’ सिर्फ़ ढाल के रूप में हैं। इस संगठित भीड़तन्त्र के इरादे कुछ और हैं जिन्हें वह किसान आन्दोलन के नाम पर भुनाने के लिए इकट्ठा हो रहे हैं।
-कृष्णमुरारी त्रिपाठी अटल
(साहित्यकार, स्तम्भकार एवं पत्रकार)