किसकी हत्या के मामले में हुई थी भुट्टो को फांसी, 45 साल बाद क्यों बरपा हंगामा

हाइलाइट्स

पाकिस्‍तान सुप्रीम कोर्ट ने पूर्व पीएम जुल्फिकार अली भुट्टो को दी गई फांसी पर सवाल उठाए.
लेकिन अब सर्वोच्‍च अदालत ने माना कि भुट्टो को निष्‍पक्ष ट्रायल का मौका नहीं दिया गया था.
4 अप्रैल, 1979 की तड़के जुल्फिकार अली भुट्टो को रावलपिंडी जेल में दी गई थी फांसी.

पड़ोसी मुल्क पाकिस्‍तान में सेना के सामने किसी भी नियम और कानून की कोई औकात नहीं है. एक दिन पहले यानी बुधवार को पाकिस्‍तान के सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसी टिप्‍पणी की, जिससे यह बात और पुख्ता हो जाती है. सुप्रीम कोर्ट ने पाकिस्‍तान के पूर्व पीएम जुल्फिकार अली भुट्टो को साल 1979 में दी गई फांसी पर सवाल उठाए. सर्वोच्‍च अदालत ने माना कि फांसी दिए जाने से पहले जुल्फिकार अली भुट्टो को अपने बचाव में निष्‍पक्ष ट्रायल का मौका नहीं दिया गया था.

दरअसल पूर्व राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने अपने ससुर भुट्टो को हत्या के एक मामले में उकसाने के लिए दोषी ठहराए जाने और 1979 में उन्हें दी गई फांसी की सजा मामले को दोबारा विचार के लिए 2011 को सुप्रीम कोर्ट भेजा था, जिसके बाद न्यायालय ने यह फैसला सुनाया. इसके बाद से पड़ोसी मुल्क में कानून और न्याय को लेकर हंगामा बरपा हुआ है. यहां जानिए क्या हुआ था 45 साल पहले जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ और किस मामले में उन्हें ठहराया गया था दोषी.

जेल में पढ़ा फांसी का आदेश
45 साल पहले 3 अप्रैल की शाम को, चार अधिकारियों की एक टीम पाकिस्तान के इतिहास में एक अध्याय को समाप्त करने के लिए रावलपिंडी जेल में दाखिल हुई. जेल अधीक्षक यार मोहम्मद, मजिस्ट्रेट बशीर अहमद खान, जेल डॉक्टर सगीर हुसैन शाह, और सुरक्षा बटालियन कमांडर और सुरक्षा अधिकारी लेफ्टिनेंट-कर्नल रफीउद्दीन सभी अदालत के आदेशों का पालन करने के लिए पहुंचे थे. डॉन डॉट कॉम के अनुसार जैसा कि कर्नल रफीउद्दीन ने अपनी पुस्तक ‘भुट्टो के आखिरी 323 दिन’ में बताया है, जेल अधीक्षक एक गवाह के साथ शाम 6.30 बजे जुल्फिकार अली भुट्टो से उनकी कोठरी में मिलने गए. उन्होंने भुट्टो को लेटा हुआ पाया. उन्होंने ध्यान आकर्षित करने के लिए पहले भुट्टो का नाम पुकारा और फिर फांसी का आदेश पढ़ा. 

अपील कर दी गई थी खारिज
आदेश में कहा गया, “लाहौर उच्च न्यायालय के 18 मार्च, 1978 के आदेश के अनुसार, आपको, मिस्टर जुल्फिकार अली भुट्टो को, नवाब मोहम्मद अहमद खान कसूरी की हत्या के लिए फांसी दी जानी है. सुप्रीम कोर्ट में आपकी अपील 6 फरवरी, 1979 को खारिज कर दी गई और समीक्षा याचिका 24 मार्च, 1979 को खारिज कर दी गई. पाकिस्तान के राष्ट्रपति ने इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करने का फैसला किया है. इसलिए तुम्हें फांसी देने का निश्चय कर लिया गया है.”

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रात में 2 बजकर 4 मिनट पर दी गई फांसी
एक बार जब वे मचान पर पहुंचे, तो दो वार्डनों ने उन्हें फांसी के तख़्ते पर चढ़ने में मदद की. उसके बाद उनकी हथकड़ियों को फिर से समायोजित किया गया; एक बार जब भुट्टो के हाथ उनकी पीठ के पीछे ले जाये गये, तो उन्हें फिर से जंजीरों में जकड़ दिया गया. वहां उपस्थित सभी लोग मौन खड़े रहे. जल्लाद तारा मसीह पहले से ही वहां मौजूद था और अपना काम करने के लिए तैयार था. उन्होंने भुट्टो के चेहरे पर नकाब डाल दिया. जब घड़ी में रात के दो बजकर चार मिनट हुए, तो जल्लाद ने भुट्टो के कान में कुछ कहा और लीवर दबा दिया. भुट्टो का शरीर लगभग पांच फुट नीचे गिरा; वह आधे घंटे तक उसी स्थिति में रहा. इसके बाद एक डॉक्टर ने भुट्टो की जांच की और उन्हें मृत घोषित कर दिया. 4 अप्रैल, 1979 की तड़के जुल्फिकार अली भुट्टो नहीं रहे.

किस मामले में हुई थी फांसी
बीबीसी हिंदी के अनुसार जुल्फिकार अली भुट्टो को उस समय पाकिस्तान के सबसे ताकतवर नेताओं में गिना जाता था. पाकिस्तान के वाणिज्य मंत्रालय से लेकर विदेश मंत्रालय जैसी जिम्मेदारियां संभालने के बाद उन्होंने पाकिस्तान पीपल्स पार्टी का गठन किया. इसके बाद 14 अगस्त, 1973 को वह पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने. लेकिन इसके मात्र चार साल बाद 5 जुलाई, 1977 को जनरल जिया उल हक ने तख्तापलट कर दिया. इसके बाद एक हत्या के मामले में उन्हें फांसी दे दी गई. ये कौन सा मामला था जिसने उन्हें फांसी के फंदे तक पहुंचा दिया.

हत्या मामले में भुट्टो के खिलाफ एफआईआर
करीब 49 साल पहले 10 और 11 नवंबर 1974 की आधी रात लाहौर में एक कार मॉडल टाउन की ओर जा रही थी, जिसमें चार लोग सवार थे. कार अहमद रजा कसूरी कार चला रहे थे जबकि उनकी बराबर वाली सीट पर उनके पिता नवाब मोहम्मद अहमद खान कसूरी बैठे थे. पीछे की सीट पर अहमद खान कसूरी की पत्नी और साली बैठी थीं. गाड़ी जैसे ही शाह जमाल गोल चक्कर पर पहुंची, तो उस पर हथियारबंद हमलावरों ने तीन तरफ़ से गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. इस हमले में मोहम्मद अहमद खान कसूरी की मौत हो गई. इछरा थाने के तत्कालीन एसएचओ अब्दुल हयी नियाजी ने एफआईआर लिखनी शुरू की. शुरुआती जानकारी दर्ज करने के बाद जब बात ‘आपको किसी पर शक है’ की आई तो अहमद रज़ा कसूरी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री ज़ुल्फिकार अली भुट्टो का नाम लिया.

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मार्शल लॉ लागू होने के पलट गया मामला
बीबीसी हिंदी के अनुसार 5 जुलाई 1977 को जैसे ही ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की चुनी हुई सरकार का तख्तापलट कर, देश में मार्शल लॉ लगाया गया. तब से यह मामला विवादों में घिर गया. स्थिति यह है कि वो विवाद आज भी देश के राजनीतिक, क़ानूनी और न्यायिक इतिहास का जिन्न की तरह पीछा करते दिखाई देते हैं. मार्शल लॉ लागू होने के तुरंत बाद, संघीय सरकार ने ज़ुल्फिकार अली भुट्टो की बनाई हुई पैरा मिलेट्री फ़ोर्स यानी फेडरल सिक्योरिटी फोर्स से कथित राजनीतिक हत्या और अपहरण जैसे गंभीर मामलों की जांच एफआईए को सौंप दी.

हाई कोर्ट ने दी मौत की सजा
ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को इस मामले में 3 सितंबर को गिरफ्तार कर लिया गया. भुट्टो की गिरफ्तारी के 10 दिन बाद, जस्टिस केएमए समदानी ने भुट्टो को जमानत पर रिहा कर दिया. जिसके परिणाम स्वरूप जस्टिस समदानी को तुरंत पद से हटा दिया गया और तीन दिन बाद, भुट्टो को दोबारा उसी मामले में मार्शल लॉ के तहत गिरफ्तार कर लिया गया. भुट्टो के खिलाफ मुकदमा चलता रहा. 18 मार्च, 1978 को मुकदमे का फैसला सुनाया गया. लाहौर हाई कोर्ट के पांच जजों ने फैसला सुनाया कि सबूतों से ये बात तय होती है कि ज़ुल्फिकार अली भुट्टो ने फेडरल सिक्योरिटी फौर्स के डायरेक्टर मसूद महमूद के साथ मिलकर अहमद रजा कसूरी की हत्या की साजिश की थी और फेडरल सिक्योरिटी फोर्स के हमले में ही उनके पिता मोहम्मद अहमद खान कसूरी की मौत हुई थी. ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को मौत की सजा सुनाई गई.

सुप्रीम कोर्ट ने खारिज की अपील
ज़ुल्फिकार अली भुट्टो  ने हाईकोर्ट के इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी. उस समय सुप्रीम कोर्ट में नौ जज थे. एक जज जुलाई 1978 में रिटायर हो गए और एक जज को बीमारी के कारण छुट्टी पर भेज दिया गया. अन्य सात जजों ने फरवरी 1979 को इस अपील पर फैसला सुनाया. सात में से चार जजों ने लाहौर उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा, जबकि तीन ने ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को बेगुनाह बताया. अपील खारिज होने के बाद 4 अप्रैल, 1979 को ज़ुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दे दी गई.

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