कामनाओं के जंजाल से मुक्त होकर ही की जा सकती है यथार्थ सेवा

कामनाओं के जंजाल से
  मुक्त होकर ही की जा
  सकती है यथार्थ सेवा

1 of 1





हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि यह जीवन नश्वर
है, जो प्राणी धरती
पर आया है, उसे एक दिन जाना
है। जीवन की अवस्थाएं बाल्यावस्था,
किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और अंत में
वृद्धावस्था सभी अवस्थाएं भी कालिक होती
हैं अर्थात इनका निश्चित समय होता है। एक अवस्था से
दूसरी अवस्था में प्रवेश और उसके बाद
में अंतिम सत्य मृत्यु का आगोश सबको
ज्ञात है, इसमें कुछ भी स्थाई नहीं
रहने वाला।

सर्वप्रथम बाल्यावस्था
आती है, उसके पश्चात क्रमशः किशोरावस्था, युवावस्था, प्रौढ़ावस्था और इसी प्रकार
जीवन चक्र चलते-चलते प्रत्येक प्राणी जिस नाम से ही दूर
रहना चाहता वह वृद्धावस्था भी आती है।
कोई नहीं चाहता कि तरूणाई.. यौवन
जाये और वृद्धावस्था आये।
फिर भी जो शाश्वत
सत्य है वह पूरा
होता है। वृद्धावस्था और उसके कारण
नैसर्गिक दुर्बलता, कष्ट, बीमारियां सभी झेलने पड़ते हैं, जो अपने कर्म के अनुसार तय
होता है।

सवाल यह उत्पन्न होता
है कि, जब जीवन की
ये अवस्थाएं अस्थाई हैं तो इनके जाने पर कैसा दुख
कैसा रंज, कैसा मलाल, क्या खोने का डर, लेकिन
सब कुछ जानते हुए कि जब यह
मनुष्य देह ही अजर अमर
नहीं है, फिर भी जीवन
की सच्चाई से मुंह मोड़कर
मानव को हर समय
हर एक उपलब्धि चाहे
धन संपदा हो,
चाहे पद प्रतिष्ठा, सब
खोने का भय सताता
रहता है और केवल उसी लोभ, लालसा के वश अपनी
स्वार्थपूर्ति से इतर सोचने
की क्षमता क्षीण हो जाती है।

उसका परिणाम यह होता
है कि जिस समाज
समुदाय में मनुष्य जीवन व्यतीत करते हैं, उनके हितार्थ कुछ कर्म करना चाहिए। उस समाज के प्रति सामाजिक
सेवा करने, समाज को कुछ उपादेयता
देने की भावना खो जाती है,
समुदाय के हितार्थ कुछ
करने की भावना बिरले
ही लोगों में बची है। गृहस्थ जीवन में मनुष्य अपना और अपने परिवार
का जीवन यापन करने के लिए व्यवसाय
करता है, नौकरी करता है। जिनका अपना व्यवसाय होता है उन्हें कोई
पद, पदाधिकार खोने का डर नहीं
और होना भी नहीं चाहिये।
सब कुछ तो विधि के
अधीन है, फिर मनुष्य के चिंता करने
से होगा भी क्या?

राजकीय सेवा में हो, चाहे औद्योगिक क्षेत्र में, उन्हें पद, प्रतिष्ठा, जिसकी अवधि तय होती है,
वह भी खोने
का मलाल होता है। बहुत लोगों के साथ ऐसा
होता है कि जैसे-जैसे सेवानिवृत्ति निकट आती है, चेहरे का रंग फीका
पड़ने लगता है, अब पद नहीं
रहेगा, रूतबा चला जाएगा आदि लेकिन वह दिन तो
तय है जिस दिन
सब छोड़ना है।

लेकिन जब इन भावनाओं
के साथ अपनी सेवा से विदा लेते
हैं, फिर सेवा निवृति पर यह लाभ
मिला, यह नहीं मिला,
आदि महीने दो महीने विलंब
हो जाये तो फिर और
अवसाद की स्थिति…कार्यालयों
के चक्कर..। सबको पता
है कि सरकार
से मिलने वाला हक कहीं नहीं जायेगा,
हां प्रक्रिया में देर-सवेर हो सकती है,
तो उसमें इतना अधीर होने की जरूरत कहाँ है।

ऐसे भावों के साथ वे
राजकीय उत्तरदायित्वों से मुक्त होकर
भी समाज के लिए कुछ
नहीं कर पाते, क्योंकि
उनके लिए उनका स्वयं का लाभ मिलना
ही सब कुछ है।
आज भाषणों में जन हितैषी बड़ी-बड़ी
बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन धरातल पर हित साधन
अपना और अपने परिवार
तक ही होता है।

मेरी विचारधारा से कोई सहमत
हो या नहीं हों,
लेकिन फिर भी यहाँ अभिव्यक्त
कर रहा हूं—मनुष्य जीवन की सार्थकता तो
तब है, जब अपनी-अपनी
सामर्थ्य के अनुसार जनहित
के लिए भी कुछ करें।
जैसे – कोई डॉक्टर है, अपनी राजकीय सेवा से सेवानिवृत्त होते
हैं, सरकार जीवन पर्यंत इतना कुछ देती है कि उनके
जीवनयापन के लिए कम
नही। फिर क्यों नहीं सच्चे वानप्रस्थी की तरह जीवन
को मानव कल्याण के लिए लगा
दें, निर्बल अक्षम, रोगियों की सेवा करें।
कोई अध्यापक है, तो कमजोर वर्ग
के बच्चों को नि:शुल्क पढ़ाकर
समाजसेवा कर सकते हैं,
उन बच्चों का भविष्य संवार
सकते हैं। इससे जो अनमोल सम्पदा
आत्मिक शांति मिलती है, जिसका कोई मोल नहीं है,… अनमोल है। रुपया पैसा कुछ भी मनुष्य के
साथ नहीं जाता, साथ जाता है या पीछे
छोड़ कर जाता है,
केवल व्यक्तित्व, कोई परमार्थ कार्य, धर्म, फिर भी हम भौतिकवाद
में जीते हैं।

जिसके पास झोंपड़ी की छाया है,
प्राकृतिक हवा है, वह पंखे की
कामना रखता है, जिसके पास पंखा है, वह कूलर की
कामना करता है जिसके पास
कूलर है, वह एयर कंडिशन
की कामना करता है। यह है विलासिता…
विलासिता से संचय की
प्रवृति, संचय की प्रवृति से
लालसा, कामना, और फिर इनकी
विकृत परिणितियाँ संचय की प्रवृति, लोभ
मोह में होती हैं। इन सब मनोवृत्तियों
के चलते धन की कामना…
लालसा सही – गलत कार्य, भ्रष्ट आचरण करवाती है।

सारांशतः व्यक्ति भौतिकता में उलझा रहता है, जिसका कोई अंत नहीं…. आगे से आगे राजसी
और तामसिक भावों का वरण करता
है और सात्विकता से
दूर इस प्रकार का
जीवन बना लेता है जो “ईश्वर
की ओर” ले जाने वाले
मार्ग (आध्यात्म) के विपरीत होता
है। यदि व्यक्ति लोभ लालच पर नियंत्रण पा
ले, संतुष्ट रहना सीख ले, तो न केवल
अपना उद्धार कर सकता है,
अपितु समाज के लिए भी
आदर्श बन सकता है।
समाज को अच्छी दिशा
दे सकता है।



यहां अपने लिए लिखना उचित तो नहीं लग
रहा, किन्तु प्रसंगवश लिखा जा रहा है,
चिकित्सा कार्य की राजकीय सेवा
में हूं, 25 वर्ष की राजकीय सेवा
में रोगी से कोई फीस,
प्रैक्टिस या किसी अन्य
तरीके से आय नहीं
की। अपने पिता को जीतोड़ मेहनत
करते , पसीने-पसीने हुए देखा है। जब कोई रोजाना
दिहाड़ी करने वाला, चार-पांच सौ रूपये प्रतिदिन
आय उसमें भी जरूरी नहीं
कि महीने में 30 दिन काम मिले, कमाने वाला व्यक्ति अपनी या बच्चे या
और परिजन को लेकर ईलाज
के लिए आता है, तब जहन में
यही आता है कि, यह
जरूरतमंद व्यक्ति सुबह से शाम तक
काम करने के बाद अपने
परिवार की रोटी रोजी
कमा कर लाया है,
घर पहुंचते ही अपने परिजन
रोगी को लेकर निकल
पड़ा… संध्या हारा थका मजदूर इस आस में
घर पहुंचता है, कि शरीर को
कुछ आराम मिलेगा, लेकिन घर पहुंचते ही
डॉक्टर का चक्कर सामने..
और फिर सीमित संसाधनों में जीने वाला वह व्यक्ति पैदल
या ज्यादा से ज्यादा साईकिल
लेकर निकल पड़ा एक और समस्या
से जूझने ।

यह मानवीय धर्म है कि इनके
लिए भावनाएँ हों और यह पूजा
पाठ से कम नहीं,
दिखावटी पूजा पाठ से तो कहीं
अच्छा है। बस इसी को
जहन में रखते हुए चलता हूं। हो सकता है
जो इस विचारों से
सहमत नहीं हों, वो शायद मुझे
नादान समझें , लेकिन यदि यह नादानी भी
है, तो काश ऐसी नादानी
प्रत्येक व्यक्ति में हो जिसे ईश्वर
ने सेवा कार्य के लिए हुनर
दिया है।

—लीलाधर शर्मा


वरिष्ठ आयुर्वेद चिकित्सा अधिकारी, गुसांईसर चूरू

ये भी पढ़ें – अपने राज्य / शहर की खबर अख़बार से पहले पढ़ने के लिए क्लिक करे

Web Title-True service can be done only by being free from the entanglement of desires



Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *