एमपी के निमाड़ की यह लोक कला हो रही विलुप्त, जानें क्या है काठी नृत्य

दीपक पाण्डेय/खरगोन.निमाड़ की बोली, संस्कृति और लोक कलाएं पूरे देश में प्रसिद्ध है. खरगोन की बात करें तो यहां की तीन प्रमुख लोक कलाएं है. पहली गम्मत, दूसरी काठी नृत्य और तीसरी कलगी तुर्रा, लेकिन बदलते वक्त के साथ आधुनिक जमाने में यह लोक कलाएं विलुप्त हो रही है. आज की नई जनरेशन इन लोक कलाओं से अनजान है. इसीलिए आज हम आपको निमाड़ की प्रसिद्ध लोक कला “काठी नृत्य” से अवगत करा रहे है. काठी नृत्य क्या है और इसका क्या महत्व है? चलिए आपको बताते है.

निमाड़ में काठी नृत्य की यह विधा भगवान शंकर और माता गौरा से जुड़ी है. बताते है कि काठी नृत्य की शुरुआत भोलेनाथ ने की थी.  इस विधा से जुड़े भगत देव उठनी एकादशी से महाशिवरात्रि तक बांस से सजी सोलह श्रंगार रहित काठी लेकर गांव-गांव में जाकर निमाड़ी गीत गाकर नृत्य करते है. महिलाएं काठी माता की पूजा करके भगत को दान में अनाज और राशि भेंट करती है.

विलुप्त हो रही विधा –
गोगावा निवासी राजाराम सिटोले, जो 50 वर्षो से काठी नृत्य कर रहे है एवं धरगांव निवासी मन्नालाल सिटोले, जो करीब 15 वर्षों से काठी नृत्य विद्या से जुड़े है. उन्होंने कहा की काठी नृत्य में बांस की एक लड़की को सोलह श्रंगार करके माता गौरा का रूप दिया जाता है. इस विद्या में पहले चार लोग शामिल रहते है. इसमें दो भगत बनते थे, तीसरा छुट्टी डुगडुगी बजाता था और चौथा काठी माता लेकर साथ-साथ चलता, लेकिन अब यह विद्या विलुप्त होती जा रही है. जिले में चुनिंदा लोग ही बचे है जो काठी नृत्य को बचाए रखें है. धरगांव में वें दो ही लोग ही काठी नृत्य कर रहे है.

इस समाज के पुरुष करते है अभिनय
बता दें कि निमाड़ में मुख्य रूप से बलाई समाज के पुरुष काठी नृत्य करते है. इसमें सबसे पहले गणेश वंदना और फिर शिव के गीत गाए जाते है. समूह में शामिल भगत शिव की तरह लाल रंग की चटखदार वेशभूषा धारण करते है, पगड़ी में कलगी, मृगशाला धारण करते है. महाशिवरात्रि के दिन पंचमढ़ी से भी 15 KM दूर देवड़ा नदी में माता का पूरा श्रंगार विसर्जित किया जाता है और समापन होता है. बड़ा महादेव में शिव के दर्शन से पहले उनके दो भगतों के दर्शन होते है.

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