आधुनिक दुनिया में विलुप्त हो रही है पीतल के बर्तनों पर कलई की कला, जानें सलीम का दर्द

हिमांशु नायक/ गुरुग्राम. बर्तन कलई करनेवाला. अब गली,कूचो और मोहल्लों में ऐसी आवाज सुनाई नही देती. आज से तीन दशक पहले इस तरह की आवाजें आम थी. जैसे ही कलई वाला आवाज लगाता लोग पीतल के बर्तन ले उसके पास पहुच जाते. कलई के बाद बर्तन ऐसे चमक उठते जैसे आज ही बने हो. कोड़ी (यानी 20 बर्तनों ) का मोलभाव होता और फिर बर्तन कलई के लिए दे दिए जाते. बर्तनों पर कलई करवाने के बाद उसमें खाना बनता. उस खाने का स्वाद ही कुछ अलग था. समय बदला और धीरे-धीरे पीतल की जगह स्टील और सिल्वर ने ले ली. आज शायद ही कोई घर हो जहा पीतल के बर्तन देखने को मिलता है. जिसके चलते कलई करने का काम लुप्त होता जा रहा है.

परंतु आज हम आपको ऐसे व्यक्ति से मिलवाने जा रहे है जिन्होंने कलई के काम को जीवित रख रखा है. गुरुग्राम के सलीम कलई करने वाले अंतिम चंद लोगों में शामिल है. जिन्होंने इस काम को बरकरार रख रखा है. सलीम 35 साल से गुरुग्राम के सदर बाजार के बाहर खुले में बैठ कर कलई का काम करते है. सलीम की माने तो उनके 25 से 30 साथी थे जो उनके साथ कलई करते थे परंतु उन सभी का देहांत हो गया और अब वह शायद अंतिम व्यक्ति है जो तांबे और पीतल के बर्तनों पर कलई करते है. सलीम की माने तो यह उनका खानदानी काम है. बड़े बड़े होटलों से सलीम के पास ऑर्डर आते है और सलीम खुद होटलों में जा कर बर्तनों की कलई कर के आते है

स्टील के बर्तनों में बनता है जहर
सलीम की माने तो जिन लोगो को पता है की स्टील के बर्तनों में जहर बनता है वह लोग स्टील के बर्तनों को इस्तमाल करने से बचते है और तांबे पीतल के बर्तनों का रुख करते है परंतु जिन लोगो को इस जहर के बारे में नही पता. वह स्टील के बर्तनों का ही इस्तेमाल कर रहे है. साफ तौर पर सलीम का यह कहना था कि स्टील के बर्तनों का इस्तेमाल कर लोग जहर खा रहे है और जिन लोगो को इस जहर के बारे में पता है वह अभी भी उनके पास कलई करवाने आते है.

समय के साथ महंगाई की पड़ी मार
सलीम की माने तो पहले 20 रुपए में 20 कोड़ी(यानी 20 बर्तनों) पर कलई होती थी परंतु महंगाई के चलते अब एक बर्तन 200 से 250 रुपए में होता है. उनको एक बर्तन में 50 रुपए का मुनाफा होता है जिससे वह अपना खर्च चलाते है. कई कई दिन सलीम की बोहनी भी नही होती.

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FIRST PUBLISHED : September 09, 2023, 22:08 IST

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