सुनो भाई उधो – जेकर लाठी तेकर भइस

मोर भइंस, कोन कोती बिलमगे हे, गंवागे हे. खोजत हौं, दरियाप लगावत हौ. राउत, पहाटिया, गेवार, भइसवार मन ल पूछथौं- देखे हौ गा, मोर कर्री भइंस ल, चार-आठ का पंदरही होय असन जात हे लहुट के नइ आवत हे? कोन कोती रेंग दिस रोगही, चंडालिन हा? ओ मन बताथे- नइं जानन मंडल, हमर मन के पहाट कोती तो नइ आय हे कोनो दिन.

ओमन बताथे- तोर भइंस सही चुरामन गौंटिया के गररेतिहा भइसा घला कोन कोती रेंग दे हे. उहू हा परन दिन तोरे सही पूछत रिहिसे, देखे हौ का गा, कइके.रामनाथ मंडल कहिथे- जा ओ भइसा सारे हा, मोर भइंसी ल लेके कोनो दूसर गांव, नइते शहर कोती लेगे हे तइसे लागथे. ओकर मन के गजब दिन के लिव इन रिलेशनशिप चलथे ओला मैं ताड़ तो गे रेहेंव. फेर संझा बिहनिया करके मोला दस किलो दूध रोज देवत रिहिसे तेकर सेती ओला छेहेल्ला मारे के छूट दे-दे रेहेंव. अइसन जानतेंव, मोर कर्री भइंस ल लड़हार के अपन परेम के जाल मं फंसा के ले जाही, तब कभू छूट नइ देये रहितेंव. अब तो दूध- वो दूधो गै, अउ भइंस के भइंस.

गरमी के महीना, बइसाख, जेठ, आगी कस बरसत हे, कहां जांव, कहां खोजव. गोसइन पूछथे- कहूं अता-पता लगिस रामहीन के ददा, भइंस के? खोजत, पता लगावत जीव हा तो कउवागे राहय. तमक परेंव, गारी मुंह ले निकल परिस. तोर फलान-ढेकान के घर मं खुसरे हस, का पता तोला मैं कहां आवत-जावत हौं. अइसे लगत होही ना, मैं चोंगी-माखुर, गंजा फूंकत एती ले ओती गिंजरत हौं, चउपाल मं संगवारी मन संग बइठ के बकर-बकर मारत हौं?

अइसे मैं कहां कहा हौं रामहीन के ददा, तैं अपने अपने-अपन काबर बड़बड़ावत हस कुकुर मांस खाय बरोबर . सोझ भाखा तो पूछत हौं. मोर तीर ले घुच दे भई, नहिते बजेड़ दे हौं एकाध डंडा, मइनता मोर भोगा गे हे ओ कर्री भइंस के खोजई मं. ये डौकी परानी के जाते अइसने होथे तइसे लागथे. जहां झिमझाम दीखिस तहां ले एती-ओती करे मं कांही देरी नइ करय ?

अई टार बबा, तोला कांही पूछब मं घला पाप हे, थोरको कांही बात होथे तहां ले बघवा असन भड़क जथस, हांव ले करथस. कांही कुछु बात पूछे बर घला नइहे तोला. बस खाली लाठी अउ डंडा देखाथस. मारे तो रेहे ओ दिन कुट-कुट ले अइसने असन बात पूछे रेहेंवे त, तभो ले तोर साध पूरा नइ होय हे. हमन नारी-परानी नोहन, तुंहर आंखी मं जानवर कस दीखथन, जानवर….

का बतावौं रे तोला… एक घौं अउ बजेड़े (पीटे) के मन तो होवत हे फेर अतके बेर कोतवाल आगे हुतकरावत. कहिथे- मंडल हावस का गो? लाठी ल एक तीर मं रखत ओहर पूछथे- हां कइसे आय हस बेटा, का काम हे?

कोतवाल बताथे- ओ दिन थाना गे रेंहेव तब थानादार साहेब पूछत रिहिसे- तुंहर गांव मं छेड़खानी, शराबखोरी अउ जनाकारी के मामला बहुत बढ़त जात हे. तोला पूछत रिहिसे- सरपंच का करत हे, ओकर आंखी मं ये सब बढ़त अपराध हा नइ दीखत हे. कहिबे, परन दिन मैं अवइया हौं, कहूं झन जाही, बइठका करबो.

अरे छेड़खानी, जनाकारी बढ़त हे एला जानत हौं, मनखे तो मनखे, मवेशी मन घला, मसमोटियावत हें. अरे देख न रे कोतवाल, मोर कर्री भइंस ला घला चुरामन गौंटिया के भइंसा हा घला भगा के कहां लेगे हे. आज पन्दरा दिन होगे.

– तब एकर रिपोट नइ लिखाते मालिक, कोतवाल ह कहिथे.

– ‘इकरो मन के थाना मं रिपोट लिखथे जी.

– वाह, अखबार नइ पढ़स का गा तैंहर? ओ साल यूपी के एक झन नेता के भइंस मन गंवागे धन कोनो ऐती-ओती कर दिन तब ओहर थाना जाके रिपोट लिखाय रिहिसे.
ओहर बताथे- कुकुर, बिलई, कबूतर घला ल चोरी करके ले जाथे तेकरो रिपोट थाना वाले मन लिखथे. खोजथे, पता लगाथे.

पुलिस वाले मन कहिथे- हमन मनखे मन के अपराध के जांच के मारे मरथन तेमा ये कहां के पशु-पंछी के मामला झपावत रहिथे. कोतवाल पूछथे- तब तोर भइंस के दिन के लापता हे मालिक अउ तोला काकर ऊपर संखा हे?

रामनाथ बताथे- चुरामन गौंटिया के भैंसा ऊपर संखा हे. जइसे ओ बदमाश हे, नीयतखोर हे गांव के बहिनी, बेटी, बहू मन ऊपर डोरा डालत रहिथे, तइसने ओकर भइंसा घला नीयतखोर हे. मोर दस किलो दूध देवइया भइंस ला उड़ा के लेगे कोतवाल, पता लगा बेटा.

तब कोनो महाराज करा बिचरवाय नइ हस गा? कोतवाल के पूछे ऊपर ले ओ मंडल हा बताथे- बिचरवाय हौं गा, बानबरद, बरौंडा, सोमनाथ, बेलाडी जंगल अउ करवइ कोती हे, केहे हे. ओती ओमन दुरुग जाय के सोंचत हे उहें कोनो कांजी हाउस ल किराया मं लेके ओकर मन के ‘हनीमून मनाय के बिचार हे.
कोतवाल हा मंडल के बात सुनके हांसथे, कठल जथे, कांजी हाउस मं हनीमून. तोला हांसी आय हे रे कोतवाल, बोकरा के जान जाय अउ खवइया बर अलोना. पन्दरा दिन होगे दूध बिना तरसत हन.
तोर दुख ला समझगेंव मंडल, फेर ये सोच तो भला ओ बेटी-बेटा मन के का हालत होवत होही जेकर मोटियारी महतारी ओमन ला छोड़ के दूसर संग भाग गे. कोतवाल के ये बात ल सुनके रामनाथ मंडल कहिथे- ओ राग ल झन अलाप बेटा, जउन पइत ले सुने हौं मोर छाती फटे असन लागत हे. आंखी डाहर ले आंसू झरे ले धर लेथे. का होही ओ बेटी-बेटा मन के, इही गुनत रहिथौं. भले मोर संतान नोहय, फेर गांव के रतन बेटी-बेटा तो आय. का सोचत होही अपन महतारी बर, अतेक नीच, अतेक पापनीन. अइसन ओला करना रिहिसे तब जनम देये साठ हमन लइका मन ला मुरकेट के काबर नइ मार डरिस. घुरवा मं फेंक देतीस.

कोतवाल देखथे- मंडल के आंखी डाहर ले आंसू गंगा-जमना के धार कस बोहावत रिहिसे. कहिथे- तोर भइंस अउ एकर मन के महतारी के चाल मं कांही अंतर नइहे मालिक. अइसन मन तो फांसी के सजा के लइक हे.

(डिसक्लेमर – लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और ये उनके निजी विचार और कल्पना है. )

Tags: Chhattisgarh Articles

Source link

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *