1962 में हिंदी चीनी भाई भाई के नारे के साथ ही दोस्ती की पीठ में धोखेबाजी का खंजर जब चीन की तरफ से घोंपा गया। भारत के सदाबहार दोस्त कहे जाने वाले रूस तक ने दूरी बना ली थी। ठीक उसी वक्त चीन से निपटने के लिए भारत को हथियार व गोला बारूद प्रदान समुद्र के सहारे भारत की तट पर दस्तक देता है। इस संकट की घड़ी में भारत की सहायता करने इजरायल सामने आए। दरअसल, भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने इजरायल से पत्र लिखकर मदद मांगी। उस वक्त इजरायल के प्रधानमंत्री बेन गुरियन ने हथियारों से भरे जहाज को भारत रवाना कर पत्र का जवाब इस अंदाज में दिया था।
गाजा पट्टी पर शासन करने वाले आतंकवादी समूह हमास ने इज़राइल पर सबसे दुस्साहसी हमलों में से एक को अंजाम दिया। कई लोगों ने इसे 1948 में इसके निर्माण के बाद से यहूदी राज्य के क्षेत्र के अंदर सबसे भीषण हमला बताया है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने इस आतंकवादी हमले पर हैरानी जातते हुए और इजरायल के साथ एकजुटता व्यक्त की। हालांकि विदेश मंत्रालय ने अभी तक कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है, लेकिन प्रधान मंत्री के शब्दों को इज़राइल के पक्ष में देखा गया है। नई दिल्ली ने कभी भी हमास के कार्यों की निंदा नहीं की है। लेकिन पिछले सात दशकों में इज़राइल और फिलिस्तीन के साथ भारत के संबंधों में उतार-चढ़ाव रहा है।
दोनों मुल्कों के बीच कैसा रहा है रिश्तों का सफर
आजादी के बाद भारत की शुरुआती विदेश नीति का झुकाव अरब देशों की ओर रहा। 1947 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में फिलीस्तीन के विभाजन के प्रस्ताव का विरोध किया और इजरायल को मान्यता देने से इनकार कर दिया। लेकिन दुनिया के कई देशों ने इस दौरान इजरायल को मान्यता दी। जिसमें भारत के कई सहयोगी देश भी शामिल थे। इसके बाद 17 सितंबर 1950 को भारत ने भी इजरायल को मान्यता देने का ऐलान किया। यहीं से भारत और इजरायल के बीच संबंधों की औपचारिक शुरुआत हुई। लेकिन दोनों के बीच इसके बाद भी हिचकिचाहट बरकरार रही।
भारत ने इजरायल से दूरी बनाए रखी
1960 के दशक के अंत और 70 के दशक की शुरुआत में यासिर अराफात के नेतृत्व में फिलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइजेशन (पीएलओ) फिलिस्तीन के लोगों के प्रतिनिधि के रूप में उभरने के साथ भारत ने पीएलओ, अल फतह के तहत सबसे बड़े राजनीतिक समूह के साथ अपना जुड़ाव विकसित किया। 10 जनवरी, 1975 को, भारत ने पीएलओ को फिलिस्तीनी लोगों के एकमात्र और वैध प्रतिनिधि के रूप में मान्यता दी और इसे नई दिल्ली में एक स्वतंत्र कार्यालय की अनुमति दी।
इंदिरा और राजीव गांधी का दौर
1980 में जब इंदिरा गांधी प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटीं, तो उन्होंने फिलिस्तीनी संघर्ष को अपना समर्थन जारी रखा। भारत ने पीएलओ कार्यालय को सभी राजनयिक उन्मुक्तियों और विशेषाधिकारों से संपन्न दूतावास के रूप में उन्नत किया। 80 के दशक की शुरुआत में अराफ़ात अक्सर दिल्ली आते रहे और भारत और फ़िलिस्तीन के बीच संबंध मजबूत हुए। मार्च 1983 में जब भारत में NAM शिखर सम्मेलन हुआ, तो यह फिलिस्तीन के लिए एकजुटता का एक मजबूत बयान आया। अप्रैल 1984 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लीबिया की राजकीय यात्रा के बाद ट्यूनिस में अराफात के मुख्यालय का दौरा किया। जब छह महीने बाद उनकी हत्या कर दी गई, तो अराफ़ात अंतिम संस्कार में शामिल हुए और सार्वजनिक रूप से रोये। राजीव गांधी ने फिलिस्तीन के प्रति भारत के दृष्टिकोण को जारी रखा और दिसंबर 1987 में गाजा और वेस्ट बैंक में इजरायल की ‘लोहे की मुट्ठी’ नीतियों के कारण फिलिस्तीनी इंतिफादा (विद्रोह) के फैलने के दौरान, भारत ने अपना दृढ़ समर्थन बनाए रखा।
दूतावास खोलने में 42 साल लग गए
भारत और इजरायल को एक-दूसरे के यहां आधिकारिक तौर पर दूतावास खोलने में 42 साल लग गए। 1992 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान दोनों के बीच अहम कूटनीतिक संबंधों की शुरुआत हुई। इजरायल ने मुंबई में अपना वाणिज्य दूतावास खोला। दोनों के रिश्तें इतने घनिष्ठ नहीं थे लेकिन जरूरत के वक्त इजरायल ने भारत की हमेशा मदद की। 1968 में जब भारतीय खुफिया एजेंसी रॉ का गठन रामनाथ काव के नेतृत्व में हुआ तो उन्होंने इंदिरा गांधी से कहा कि हमें इजरालय के साथ अपने संबंध बेहतर बनाने चाहिए व वहां की खुफिया एजेंसी मोसाद की मदद लेनी चाहिए। इंदिरा गांधी इसके लिए राजी हो गईं। जिसका लाभ बंग्लादेश मुक्ति संग्राम के वक्त भारत को प्राप्त हुआ।
वाजपेयी ने बदली इबारत
1999 के करगिल युद्ध में भी इजरायल ने भारत को एरियल ड्रोन, लेसर गाइडेड बम, गोला बारूद और अन्य हथियार बेचे। संकंट के समय इजरायल हमेशा हथियार आपूर्तिकर्ता देश के रूप में स्थापित हुआ। भारत हर साल 67 अरब से 100 अरब तक के सैन्य उत्पाद इजरायल से आयात करता है। जब पोखरण में 1998 में परमाणु परीक्षण किया गया तब इजरायल ने उसकी कोई आलोचना नहीं की। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने भी इजरायल के साथ संबंधों को तरजीह दी। पिछले कुछ सालों में दोनों देशों के बीच संबंधों में मजबूती आई है।
मोदी इसे और आगे ले गए
पिछले लगभग एक दशक में इज़राइल के साथ-साथ पश्चिम एशिया के साझेदारों – सऊदी अरब, मिस्र, कतर और ईरान के साथ सुरक्षा, रक्षा और कनेक्टिविटी में संबंध गहरे हुए हैं। जटिल पश्चिम एशियाई क्षेत्र में सभी पक्षों के साथ जुड़ने का भारतीय रणनीतिक दृष्टिकोण आवश्यकता से पैदा हुआ है। क्षेत्र में 90 लाख मजबूत भारतीय समुदाय और पश्चिम एशिया और यूरोप से कनेक्टिविटी। महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत का 50% से अधिक ऊर्जा आयात पश्चिम एशिया से होता है।