लैंगिक भेदभाव खत्म करने की दिशा में अहम कदम साबित होगा महिलाओं को मिला भाषाई न्याय

मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि ये शब्द उचित नहीं हैं और अतीत में न्यायाधीशों द्वारा इसका इस्तेमाल किया गया है। हैंडबुक का उद्देश्य आलोचना करना या निर्णयों पर सवाल उठाना नहीं है, बल्कि यह बताना है कि कैसे रूढ़िवादिता का उपयोग अनजाने में किया जा सकता है।

सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने न्यायिक निर्णयों में लैंगिक रूढ़िवादिता को खत्म करने के लिए बीते दिनों 43 शब्दों को फिलहाल रेखांकित करते हुए ‘हैंडबुक ऑन: कॉम्बेटिंग जेंडर स्टीरियोटाइप्स’ 30 पेज की पुस्तिका जारी की। पुस्तिका में नारी गरिमा को हानि पहुंचाने वाले घिसे-पिटे शब्दों और अपशब्दों को हटा दिया गया है। इस पुस्तिका में वही शब्द हैं जो पहले कभी, कोर्ट में हुई बहस या उसके बाद लिखे गए निर्णयों में प्रयोग किये गये थे। यह पहली बार है कि जब किसी मुख्य न्यायाधीश का ध्यान महिलाओं के विरुद्ध प्रयोग किए जाने वाले कठोर और अपमानजनक शब्दों की ओर आकर्षित हुआ है, जो अदालत की भाषा में घुसपैठ कर चुके हैं। कलकत्ता हाईकोर्ट की जस्टिस मौसमी भट्टाचार्य की अध्यक्षता वाली समिति द्वारा यह हैंडबुक तैयार की गई है।

असल में इसी साल मार्च में महिला दिवस के मौके पर मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि लैंगिक भेदभाव को बढ़ावा देने वाले शब्दों को हटाने पर काम चल रहा है, जल्द एक गाइडलाइन जारी की जाएगी। हैंडबुक के लॉन्च के वक्त मुख्य न्यायाधीश बोले, ‘‘इसका मकसद किसी फैसले पर संदेह करना या आलोचना करना नहीं है बल्कि स्टीरियोटाइपिंग, खासकर औरतों को लेकर इस्तेमाल होने वाले शब्दों को लेकर जागरूकता फैलाना है। हैंडबुक इस बात पर गौर करेगी कि स्टीरियोटाइप क्या है।’’ सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि उन कठोर या अपमानजनक शब्दों की जगह उनके सम्मानजनक विकल्प का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यह पुस्तिका अधिवक्ताओं और न्यायाधीशों दोनों के लिए है।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि हमारी अदालतों की भाषा वाकई कबीलाई और मध्यकालीन संस्कारों और सोच से प्रभावित है। अदालतों में भी पितृसत्तात्मक व्यवस्था है, क्योंकि अधिकांश न्यायाधीश, वकील और कर्मचारी पुरुष हैं। महिलाओं की उपस्थिति न्यूनतम है, लेकिन भाषा के स्तर पर वही पुराना लैंगिक वर्चस्व का भाव है। बेशक याचिका हो या पुलिस, जांच एजेंसी का आरोप-पत्र अथवा वकीलों की बहस और न्यायाधीशों के फैसले हों, भाषाई स्तर बेहद आपत्तिजनक और तिरस्कारवादी रहा है। मसलन- वेश्या, बिन ब्याही मां, बदचलन, छोड़ी हुई औरत, रखैल आदि शब्द कमोबेश 21वीं सदी की भाषा के नहीं हो सकते।

समाज के विभिन्न वर्गों और कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा भी कभी-कभी बहुत सम्मानजनक नहीं होती है। ऐसा नहीं है कि ऐसे शब्दों का प्रयोग जानबूझकर किया जाता है। हमारे अचेतन मन में ऐसे शब्दों का प्रयोग यूं ही किया जाता है, लेकिन उनका अर्थ गंभीर और असम्मानजनक होता है। ऐसे शब्दों का प्रयोग हम पीढ़ी-दर-पीढ़ी करते रहते हैं। आमतौर पर महिलाओं के लिए प्रयोग होने वाले शब्दों से वे खुद परिचित नहीं हैं।

समाज की मूल इकाई परिवार है, लेकिन वहां भी सब कुछ ऐसे ही चल रहा है। ऐसे में महिलाओं के लिए प्रयोग होने वाले अपमानजनक शब्दों को रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस हैंडबुक का लॉन्च करना सरसरी नजर में मामूली बात लग सकती है, लेकिन अगर इसकी बारीकियों पर नजर डालें तो यह रुढ़िवादी सोच पर गहरी चोट करती है। आम बोलचाल की भाषा में कहें तो अपमान के केंद्र में भी महिलाएं ही होती हैं। इसे बदलने के लिए भी बड़े प्रयासों की जरूरत है।

वास्तव में भाषा हमारी चेतना को अभिव्यक्त करती है, लिहाजा मानसिक सोच को भी स्पष्ट करती है। कानून भाषा के जरिए ही जिंदा है। अदालतों में जो शब्द इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, उनका हमारी जिंदगी पर बहुत प्रभाव होता है। कटघरे और अदालत में मौजूद महिला किसी की बेटी, बहन, बहू और पत्नी ही है, लिहाजा अपराध के बिना उसे लांछित क्यों किया जाए? प्रधान न्यायाधीश ने यह सामाजिक, भाषायी बीड़ा उठाया है, यकीनन इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

अब नई विश्व-व्यवस्था और नए भारत में परिवार का ‘कमाऊ’ और ‘रोटी-प्रदाता’ सदस्य पुरुष ही नहीं, बल्कि महिलाएं भी हैं। अलबत्ता वे यौन और घरेलू सेवाएं भी प्रदान करती हैं। प्रकृति ने उन्हें ही ‘मातृत्व’ का वरदान दिया है, लिहाजा शब्दों और सोच का इस्तेमाल भी सभ्य और समता के स्तर पर किया जाना चाहिए। चूंकि अदालत से सीधा संबंध पुलिस, जांच एजेंसियों का है, लिहाजा प्रधान न्यायाधीश नई शब्दावली के लिए पुलिस विभाग, गृह मंत्रालय और अन्य संबद्ध विभाग से भी आग्रह कर सकते हैं। हमारा मानना है कि देश की समूची व्यवस्था में कमोबेश ‘भाषायी परिवर्तन’ को जरूर लागू किया जाना चाहिए। तभी हम व्यावहारिक और आदर्श, सामाजिक तौर पर ‘लैंगिक समानता’ और ‘लैंगिक गरिमा’ की बात कर सकते हैं। बहरहाल नई शब्दावली का प्रयोग भी इसी संदर्भ में किया गया है कि भरी अदालत में औरत को कलंकित या लांछित न किया जाए। जो पुस्तिका जारी की गई है, उसे प्रवचन के बजाय व्यवहार में लिया जाना चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश का कहना है कि ये शब्द उचित नहीं हैं और अतीत में न्यायाधीशों द्वारा इसका इस्तेमाल किया गया है। हैंडबुक का उद्देश्य आलोचना करना या निर्णयों पर सवाल उठाना नहीं है, बल्कि यह बताना है कि कैसे रूढ़िवादिता का उपयोग अनजाने में किया जा सकता है। हैंडबुक के लॉन्च के बाद अब सुप्रीम कोर्ट के फैसलों और दलीलों में लैंगिक रूढ़िबद्ध शब्दों का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा। छेड़छाड़, वेश्या या वेश्या और गृहिणी जैसे शब्दों की जगह अब ‘सड़क पर यौन उत्पीड़न’, ‘सेक्स वर्कर’ और ‘गुहिणी’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाएगा।

इस पुस्तिका में आपत्तिजनक शब्दों और उनके स्थान पर प्रयोग किये जाने वाले नये शब्दों और वाक्यांशों की सूची है। इनका उपयोग न्यायालय में दलीलें देने, आदेश पारित करने तथा उसकी प्रति तैयार करने में किया जा सकता है। शब्द गलत क्यों हैं और वे कानून को और कैसे विकृत कर सकते हैं, यह भी बताया गया है। व्यवहारिक रूप से महिलाओं को समानता की ओर लाने के लिए ऐसी पहल की बहुत आवश्यकता है।

फिलहाल यह बेहद सीमित पहल है। महिलाओं के अलावा भी कुछ और शब्द जोड़े गए हैं, लेकिन अभी यह अनुसंधान जारी रखना चाहिए कि किन और शब्दों को बेहतर और सभ्य बनाया जा सकता है। पहली चुनौती यह है कि क्या अदालतों में इन बेहतर शब्दों का चलन तुरंत प्रभावी हो जाएगा? जो नए शब्दों के स्थान पर पुराने शब्दों को ही दोहराते रहेंगे, उनके लिए अदालत के निर्देश क्या होंगे? अथवा उन्हें दंडित भी किया जा सकेगा? न्यायपालिका में करोड़ों मामले लंबित या विचाराधीन हैं। उनकी भाषा बदलने के आधार और नियम क्या होंगे?

यह उन सभी संस्थानों के लिए भी एक उदाहरण बनेगा, जो बिना सोचे-समझे आपत्तिजनक शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। इसका प्रभाव बौद्धिक समाज और उसके नीचे के समाज पर दिखाई देने लगेगा। हालांकि, शिक्षा के उच्च स्तर के बावजूद, महिलाओं के प्रति हमारे समाज का दृष्टिकोण संकीर्ण है। उन्हें अपमानित करने की नियत से लोक और शास्त्रोक्त भाषा में कई ऐसे शब्द गढ़े गए हैं, जिन्हें गाली भी कहा जा सकता है। इस हैंडबुक को जारी करते हुए चीफ जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि इस हैंडबुक को तैयार करने का मकसद किसी फैसले की आलोचना करना, या उस पर संदेह करना नहीं, बल्कि यह बताना है कि अनजाने में कैसी और किस-किस तरह की रूढ़ियाँ चलती रहती हैं और कोई इस पर बहुत जल्दी ध्यान ही नहीं दे पाता।

निश्चित ही शब्दों की यह सूची अभी छोटी होगी, लेकिन धीरे-धीरे यह लम्बी होती जाएगी और महिलाओं को उन अपशब्दों से निजात मिल सकेगी जो उनके विरुद्ध घरों, दफ्तरों, गलियों और बाजारों में अब भी बड़ी सहजता से इस्तेमाल किए जाते हैं। सर्वोच्च न्यायालय का यह प्रयास विशेषकर महिलाओं के सम्मान, उनकी गरिमा और समता के मद्देनजर किया गया है। इस लैंगिक और बेहतर पहल के लिए प्रधान न्यायाधीश बधाई और साधुवाद के पात्र हैं।

-डॉ. आशीष वशिष्ठ

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

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