महिला आरक्षण विधेयक : 27 साल से लंबित, अब फिर से चर्चा में क्यों?

भाजपा और कांग्रेस ने हमेशा विधेयक का समर्थन किया है लेकिन अन्य दलों के विरोध और महिला कोटा के भीतर पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण की कुछ मांगें ऐसी रहीं, जिसके चलते विधेयक पर सहमति नहीं बन सकी. रविवार को कई दलों ने सोमवार से शुरू होने वाले पांच दिवसीय संसद सत्र में महिला आरक्षण विधेयक लाने और पारित करने की जोरदार वकालत की, लेकिन सरकार ने कहा कि ‘‘सही समय पर उचित निर्णय लिया जाएगा.”

मौजूदा लोकसभा में 78 महिला सदस्य चुनी गईं, जो कुल संख्या 543 का 15 प्रतिशत से भी कम है. 

सरकार द्वारा पिछले दिसंबर में संसद के साथ साझा किए गए आंकड़ों के अनुसार, राज्यसभा में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व लगभग 14 प्रतिशत है. 

आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, असम, गोवा, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, मेघालय, ओडिशा, सिक्किम, तमिलनाडु, तेलंगाना, त्रिपुरा और पुडुचेरी सहित कई राज्य विधानसभाओं में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 10 प्रतिशत से कम है. 

दिसंबर 2022 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, बिहार, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश और दिल्ली में 10-12 प्रतिशत महिला विधायक थीं. 

वहीं, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और झारखंड क्रमश: 14.44 प्रतिशत, 13.7 प्रतिशत और 12.35 प्रतिशत के साथ महिला विधायक संबंधी सूची में सबसे आगे हैं. 

पिछले कुछ हफ्तों में, बीजू जनता दल (बीजद) और भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस) सहित कई दलों ने महिला आरक्षण विधेयक को पेश करने की मांग की है, जबकि कांग्रेस ने भी रविवार को हैदराबाद में अपनी कार्य समिति की बैठक में इस संबंध में एक प्रस्ताव पारित किया. 

हालांकि, यह देखना दिलचस्प होगा कि नये विधेयक में कितने प्रतिशत आरक्षण का प्रस्ताव किया जा सकता है क्योंकि 2008 का विधेयक, जो लोकसभा में पारित नहीं होने के बाद 2010 में समाप्त हो गया था, में लोकसभा और प्रत्येक राज्य विधानसभा की सभी सीटों में से महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षित करने का प्रस्ताव था. 

जब विधेयक पारित कराने की आखिरी कोशिश की गई तो संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सत्ता में था. 

‘पीआरएस लेजिस्लेटिव’ पर उपलब्ध एक लेख के अनुसार, इसमें अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और एंग्लो-इंडियन के लिए कोटा-के भीतर-कोटा का भी प्रस्ताव रखा गया था, जबकि आरक्षित सीटों को प्रत्येक आम चुनाव के बाद चक्रीय आधार पर बदला जाना था. इसका मतलब था कि तीन चुनावों के चक्र के बाद, सभी निर्वाचन क्षेत्र एक बार आरक्षित श्रेणी में आ जाते। यह आरक्षण 15 वर्षों के लिए लागू होना था. 

वर्ष 2008-2010 के असफल प्रयास से पहले, इसी तरह का विधेयक 1996, 1998 और 1999 में भी पेश किया गया था. 

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(हेडलाइन के अलावा, इस खबर को एनडीटीवी टीम ने संपादित नहीं किया है, यह सिंडीकेट फीड से सीधे प्रकाशित की गई है।)

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