दिखाई नहीं दे रहा (व्यंग्य)

“यही तो गलत करते हैं। पंचतंत्र की कहानी सुनी है न। चार मूर्खों को समझदार बनाने के चक्कर में तंत्र का पंचनामा हो जाता है। ज्यादा सोचना एक मानसिक रोग है। आम आदमी को कुछ नहीं करना है, बस पिये-खाये और पड़ा रहे।”

“डाक्टर साहब देखिये ना, इनकी आवाज चली गयी है। काफी दिनों से इन्होनें देखना बिलकुल बंद कर दिया है। अब तो किसी की ओर देखते भी नहीं हैं!” बेटा साथ लाये पेशेंट पिता को आगे करते हुए बोला।

डाक्टर ने पहले नब्ज देखी, आले से धड़कन, टार्च से मुंह के अन्दर गले तक झाँका। आँखें ऊपर-नीचे करवायीं, बाहर से आँख के आसपास और उसे टटोला, बोले– “हूँ … कब से नहीं देख रहे हैं?”

“तीन महीने हो गए हैं। पहले तो बहुत देखा करते थे, इतना कि इनको न देखने लिए बार-बार कहना पड़ता था।” पिता ने बताया।

“कुछ अच्छा-बुरा तो न देख लिया?”

“देखने में तो नहीं आया हाँ टी.वी बहुत ज्यादा देखा जरुर करते थे।”

“करते क्या हैं… मतलब काम-वाम ?”

“वाम ही इनका काम है? वाम ही ओढ़ना बिछाना । मतलब लेखक हैं, लिखते पढ़ते और सोचते हैं।”

“यही तो गलत करते हैं। पंचतंत्र की कहानी सुनी है न। चार मूर्खों को समझदार बनाने के चक्कर में तंत्र का पंचनामा हो जाता है। ज्यादा सोचना एक मानसिक रोग है। आम आदमी को कुछ नहीं करना है, बस पिये-खाये और पड़ा रहे।”

“पीते-खाते तो हैं, रात-दिन सोचते भी हैं पर देखते नहीं हैं।”

“देखिये मामला पेंचीदा है। कुछ जांच-वांच करवानी पड़ेगी।”

“क्या हुआ इनको?… कैसी बीमारी है डाक्साब ?”

“यही तो देखना है कि बीमारी है या तंत्र का पंच।”

“तंत्र का पंच! इसमें क्या देखना बंद हो जाता है !?”

“खरा-खतरा देखना बंद हो जाता है। आदमी देख सकता है पर देखता नहीं, लिख सकता है पर लिखेगा नहीं, जी नहीं सकता पर जियेगा।” डाक्टर ने बताया।

“हे भगवान, अकेले इन्हीं को होना था ये रोग!!” बेटे ने पिता के सर पर हाथ फेरते हुए कहा।

“ये अकेले नहीं हैं। आजकल इसके बहुत पेशेंट आ रहे हैं। तंत्र का पंच के चलते सबकी आवाज़ बंद होती जा रही है।”

“तो इलाज इनका करना चाहिए या तंत्र के पंच का?”

“तंत्र के पंच का इलाज पांच साल में एक बार ही हो सकता है। फ़िलहाल इन्हें धृतराष्ट्र ही रहने दें।”

“ऐसा कैसे हो सकता है! जहाँ जरुरी हो देखना तो चाहिए।”

“यही तो मजे वाली बात है। जब लगे कि देखना जरुरी है तब पेशेंट देखना बंद कर देता है।”

“लेकिन जिम्मेदार नागरिक तो देखते रहे हैं!”

“देखते थे कभी। अब टीवी दिखाता है, रेडियो बातों की जुगाली करके दिखाता है, राजा दिखाते हैं, सत्ता दिखाती है। जो सहमत हैं वे उछलें-कूदें नाचें-गाएं और जो असहमत हैं चुप रहें, समझदार बनें। देश को आगे बढ़ने दें।”

– डॉ. सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’,

(हिंदी अकादमी, मुंबई से सम्मानित नवयुवा व्यंग्यकार)

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