देश को शिक्षा का असल अर्थ समझाने वाले शिक्षक, फिलोसॉफर और देश के उपराष्ट्रपति से राष्ट्रपति बनने वाले डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने विभिन्न क्षेत्रों में अपना अतुलनीय योगदान दिया है. साल 1948 में विश्वविद्याल शिक्षा आयोग का गठन कर रिपोर्ट प्रस्तुत करने जो काम शुरू हुआ था, उसे हम विश्वविद्यालय आयोग के नाम से जानते हैं. इस आयोग का गठन तत्कालीन विश्वविद्यालय स्तर की समस्याओं का समाधान करने के लिए किया गया था और यह स्वतंत्र भारत का पहला शिक्षा आयोग था. गौरतलब है, कि इस आयोग को ‘राधाकृष्णन आयोग’ के नाम से भी जाना जाता है. डॉ. राधाकृष्णन को उनके किए गए कार्यों के लिए आज भी याद किया जाता है और भारत सरकार द्वारा उनके जन्मदिवस के अवसर पर श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कृत किया जाता है.
डॉ. राधाकृष्णन ने ही अपने शैक्षिक विचारों के अंर्गत यह बताया- कि विश्विद्यालयों और महाविद्यालयों में उन्हीं छात्रों को प्रवेश देना चाहिए, जो 12 वर्ष की विश्वविद्यालय की शिक्षा प्राप्त कर चुके हों… विश्विद्यालयों में कार्य दिवसों की संख्या 1 वर्ष में 180 दिन की हो (जिसके अंतर्गत परीक्षा के दिनों को नहीं जोड़ना चाहिए)… किसी भी विषय में अध्ययन के लिए पाठ्यक्रम तो बनाना चाहिए, लेकिन एक निश्चित पुस्तक निर्धारित नहीं की जानी चाहिए. डॉ. राधाकृष्णन ने ही कहा कि सांयकालीन कक्षाओं को भी किया जाना चाहिए और परीक्षा के स्तर को उठाने हेतु प्रथम, द्वितीय और तृतीय श्रेणी के लिए न्यूनतम प्राप्तांक निर्धारित होना चाहिए.
डॉ. राधाकृष्णन ने अपने भाषण, अपने लेखों और अपनी किताबों के माध्यम से भारतीय दर्शनशास्त्र की विस्तृत जानकारी समाज को दी. उन्होंने भारत में ही नहीं, बल्कि भारत के बाहर भी मैनचेस्टर और लंदन में भी भाषण दिए और लोगों को संबोधित किया. वह साल 1936 से लेकर 1952 तक ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में कार्यरत रहे. काशी हिंदू विश्वविद्यालय में चांसलर और आंध्र विश्वविद्यालय में वाइस चांसलर के पद पर आसीन रहे. उन्होंने साल 1946 में एक भारतीय प्रतिनिधि के रूप में यूनेस्को में अपनी बात को रखा.
डॉ. राधाकृष्णन हिंदू विचारधारा के एक महान दार्शनिक और शिक्षाविद् माने जाते हैं, जिन्हें भारतीय संस्कृति के संवाहक के रूप में भी जाना जाता है. साल 1954 में भारत सरकार ने उन्हें भारत रत्न के सम्मान से अलंकृत किया, साथ ही उनकी प्रतिभा को देखकर भारत सरकार ने उन्हें कई बड़े सम्मानों से भी नवाज़ा. उन्होंने ढेरों किताबें लिखीं. वह विचारक थे और उन्होंने गद्य लिखे. अपने लेखन के माध्यम से उन्होंने कम शब्दों में बड़ी से बड़ी और ज़रूरी से ज़रूरी बात को रखने का काम किया, जो ऐतिहासिक है. उनका हमेशा यही प्रयास रहा कि अपने लेखन के माध्यम से वह पश्चिमी लोगों को भी भारतीय विचारों और संस्कृति से परिचित करवा सकें और वह इसमें कामयाब भी रहे.
डॉ. राधाकृष्णन टैगोर की फिलॉसफी में यकीन करते थे. उनकी पहली किताब भी ‘The Philosophy OF Rabindranath Tagore’ ही थी. डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की एक बहुत ही दुर्लभ लेकिन सुप्रसिद्ध पुस्तक है ‘नवयुवकों से’. इस पुस्तक में डॉ. राधाकृष्णन के उन सभी भाषणों को हिंदी में सम्मिलित किया गया, जो उन्होंने समय-समय पर कर्नाटक विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्याल, पंजाब विश्वविद्यालय, सागर विश्वविद्यालय, भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, मेरठ कॉलेज आदि जैसे शिक्षण संस्थानों के समारोहों और सभाओं में छात्रों को संबोधित करते हुए दिया. डॉ. राधाकृष्णन के उन भाषणों का अनुवाद विश्वंभरनाथ त्रिपाठी ने किया है, जिसे वर्ष 1972 में ‘संमार्ग प्रकाशन’ ने एक जगह इकट्ठा करके प्रकाशित किया.
पुस्तक के प्रस्तुत अंश में डॉ. राधाकृष्णन के उस भाषण को रखा गया है, जो उन्होंने ‘मेरठ कॉलेज’ में छात्रों और शिक्षकों को संबोधित करते हुए दिया था. आपको बता दें, कि मेरठ कॉलेज ‘विश्वविद्यालय’ नहीं था और प्रस्तुत भाषण डॉ. राधाकृष्णन यही समझाने की कोशिश कर रहे हैं, कि कोई भी कॉलेज विश्वविद्यालय सिर्फ नाम से नहीं बल्कि अपने काम से होना चाहिए. अपने भाषण में वह इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं, कि शिक्षा कोई व्यापार नहीं बल्कि एक ऐसा मिशन है जो बेहतर मनुष्य के साथ-साथ बेहतर समाज का भी निर्माण करती है. डॉ. राधाकृष्णन के इस भाषण को आज के समय में पढ़ा जाना बेहद ज़रूरी इसलिए भी हो जाता है, क्योंकि पिछले कुछ सालों में शिक्षा पूरी तरह से व्यवसाय का रूप धारण कर चुकी है. स्कूल-कॉलेजों में शो-शाबाज़ी के चलते अभिभावकों से मोटी फीस ली जाती है, लेकिन शिक्षा के नाम पर न तो बच्चों में नैतिक बातों का विकास किया जा रहा है और न ही शिक्षा को शिक्षा की तरह देखा जा रहा है, बल्कि स्कूल-कॉलेजों के नाम स्टेटस सिंबल बन कर सामने आ रहे हैं और छात्रों में नैतिकता का पतन तेज़ी से हो रहा है.
शिक्षण-वृत्ति व्यापार नहीं, मिशन है : डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
गत साठ वर्षों में, जिन लोगों ने इस कॉलेज (मेरठ कॉलेज) को उसके वर्तमान स्वरूप तक पहुंचाने के लिए कार्य किया है, उसका स्मरण इस अवसर पर करना उचित ही है. यह कॉलेज सतत विकासमान रहा है और आज 4,000 से अधिक विद्यार्थी इसमें शिक्षा पा रहे हैं. अध्यापन और अनुसंधान से संबंधित कई विभाग यहां हैं. यह स्वाभाविक है कि उसको विश्विद्यालय के रूप में परिणत करने की आपकी महत्वाकांक्षा हो. यह सच है कि ‘यूनिवर्सिटी जांच कमीशन’ की अपनी रिपोर्ट में हमने कहा था कि यदि इस कॉलेज के पास पर्याप्त स्कोप हो और यह समुचित शिक्षण का उत्तरदायित्व वहन कर सके, तो इसको विश्विद्यालय के रूप में विकसित होने दिया जा सकता है.
किंतु यह दो शर्तें- ‘आर्थिक सामर्थ्य’ और ‘शिक्षण संबंधी पर्याप्त व्यवस्था’ बहुत आवश्यक है. केवल नाम बदल देने से कोई कॉलेज विश्वविद्यालय नहीं बन जाएगा. जिन विश्वविद्यालयों का आर्थिक आधार सुदृढ़ नहीं है, वे शिक्षण की दृष्टि से असंतोषप्रद रीति-नीति बरत रहे हैं. घटिया प्रकार के, और सो भी संख्या में अपर्याप्त अध्यापकों के कारण, न तो छात्रों की पढ़ाई-लिखाई ठीक हो पाती है और न उनको ऐसे अध्यापकों से नैतिक मार्ग-दर्शन ही मिल पाता है. इस समय 4,000 से भी अधिक छात्रों के लिए आपके यहां 135 अध्यापक हैं, जिनको पर्याप्त नहीं कहा जा सकता. आपको मात्रा की अपेक्षा गुण पर बल देना चाहिए. आपको इतना समर्थ बनना चाहिए कि आप अपने यहां ऐसे अध्यापकों को नियुक्त कर सकें, जो अपने ज्ञान में वृद्धि करते रहने के लिए भी उत्सुक हों. अध्यापन-वृत्ति को व्यापार के निम्न स्तर पर नहीं उतारना चाहिए. यह जीविका है, व्यवसाय है, ‘मिशन’ (धर्मार्थ कार्य) है.
अध्यापकों का यह कर्त्तव्य है कि वे अपने शिष्यों को नवीन लोकतंत्र के अच्छे नागरिक बनाएं. उनको चाहिए कि वे अपने छात्रों में नूतन अनुभव के लिए अभिरुचि तथा ज्ञानप्राप्ति के साहसिक कार्य के प्रति प्रेम उत्तपन्न करें.
विश्वविद्यालय का दृष्टिकोण व्यापक, विश्वजनीन होना चाहिए. विभिन्न प्रकार के पाठ्यक्रमों का अध्ययन करने से, सामूहिक साहचर्य के वातावरण में मिलने-जुलने से, अच्छे और महान व्यक्तित्वों के सत्संग से छात्रों के जीवन और चरित्र में उदात्तता का समावेश होता है. यदि हम विज्ञान और दर्शन के आधारभूत सिद्धांतों की ऊंची बातों में रुचि नहीं रखते हैं, तो हम स्वयं को सत्यत: शिक्षित नहीं कह सकते. हमको चाहिए कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने मानव-जाति की प्रगति में जो वेग ला दिया है, उसको न खोते हुए, हम अपनी सांस्कृतिक विरासत को भी सुरक्षित रखें.
यदि मनुष्य स्वयं अपने अहं से समझौता नहीं कर सकता, यदि जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण सश्लिष्ट नहीं है, तो वह क्रूर, विंध्वसात्मक, यहां तक कि विक्षिप्त तक हो जाएगा. वह अफने पथ से भटक जाएगा. अपने मिथ्याभिमान के वशीभूत होकर हम जीवन के अत्यावश्यक मूल्यों पर से ही आस्था खोते जा रहे हैं और आत्मा की इयत्ता से बाहर रहने तथा पुरातन गुप्त रहस्यों के सीमांत को बंद करने की चेष्टा कर रहे हैं. हम विस्थापित हैं, गृहहीन हैं और भय तथा अभिमान के कारण अर्द्ध-विक्षिप्त हो रहे हैं. जीवन का जादू फीका पड़ता जा रहा है और जीवन के वास्तविक सार और रस को प्राप्त करना हमारे लिए अधिकाधिक कठिन होता जा रहा है.
आज हमें मृत्यु और रोग के विरुद्ध उतना संघर्ष नहीं करना है जितना मनुष्य द्वारा मनुष्य के दमन के विरुद्ध, जितना उस अन्याय तथा निरंकुशता के विरुद्ध, जिन्होंने जीवन को इतना दुखांत और स्वतंत्रता को इतना असुरक्षित बना दिया है. हमारे जीवन-दर्शन में ऐसे आधार-भूत सिद्धांत हैं जिन पर एक नये विश्व-समाज का निर्माण हो सकता है.
जब यह कहा जाता है कि हमारा राज्य धर्मनिरपेक्ष है, तब इसका यह अर्थ नहीं होता कि हम अपनी परंपराओं से उदासीन हैं अथवा हमारे मन में धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं है. मैं आशा करता हूं कि इस कॉलेज में- यह कॉलेज रहे या विश्वविद्यालय, आत्मा के इन आधारभूत मूल्यों को सुरक्षित रखा जाएगा.
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FIRST PUBLISHED : September 05, 2023, 23:01 IST